इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय!
इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय! {संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️}
लोकतंत्र में जीत और हार सिर्फ़ आंकड़े नहीं होते, यह सपनों का उत्थान और पतन भी होते हैं। **इंडिया गठबंधन** एक सपना था—विपक्ष के बिखरे दलों को एकजुट करने का, देश को एक नई दिशा देने का। लेकिन यह सपना टूटने की कगार पर है।
यह गठबंधन तब बना था जब जनता ने महसूस किया कि सत्ता में बैठी ताकतें अजेय होती जा रही हैं, और विपक्ष को एकजुट होना होगा। लेकिन जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वह कभी दिखी ही नहीं। गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखा गया, लेकिन इसकी आत्मा कभी तैयार ही नहीं हुई।
नेतृत्व का असमंजस: कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी
राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि "विचारधारा की लड़ाई में उन्हें कुछ नुकसान उठाना पड़े तो उठाएंगे।" अब समय है कि वे इसे सच साबित करें। यदि यह लड़ाई विचारधारा की है, तो गठबंधन को एक संगठित दिशा देने के लिए रोजमर्रा के फैसलों की ज़िम्मेदारी अखिलेश यादव जैसे ऊर्जावान और ज़मीनी नेता को सौंपनी चाहिए।
सोनिया गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष रह सकते हैं, लेकिन गठबंधन की धड़कन, उसकी गति और उसकी आत्मा को संचालित करने के लिए अखिलेश से बेहतर कोई नहीं।
टूटी रणनीतियों का गठबंधन
नीतीश कुमार के नेतृत्व में इस गठबंधन की नींव पड़ी थी, लेकिन कांग्रेस की अनिर्णय की राजनीति ने इसे कमज़ोर बना दिया। बैठकें होती रहीं, लेकिन फैसले नहीं लिए गए।
- कोई स्थायी कार्यालय नहीं।
- कोई नियमित समन्वय बैठक नहीं।
- कोई कॉमन एजेंडा नहीं।
- कोई प्रधानमंत्री उम्मीदवार तक नहीं।
यह कैसी तैयारी थी? यह कैसा गठबंधन था?
जब ममता बनर्जी ने खड़गे को प्रधानमंत्री चेहरा बनाने का सुझाव दिया, अरविंद केजरीवाल ने समर्थन किया, और नीतीश कुमार को संयोजक बनाने की बात चली, तो कांग्रेस ने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया?
आज हम देखते हैं कि नीतीश कुमार गठबंधन से अलग हो गए, अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर वार हुआ, और INDIA गठबंधन बिखरता चला गया।
मोदी को लाइफलाइन देने वाला कौन?
अगर सिर्फ़ 40-50 सीटों का फर्क नहीं होता, तो आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं होते। वह शायद गुजरात में कहीं ध्यान लगा रहे होते, और देश में एक नई सरकार आकार ले रही होती।
लेकिन नहीं! कांग्रेस ने अपनी धीमी और असमंजस भरी राजनीति से विपक्ष को भी असहाय बना दिया।
दिल्ली में केजरीवाल के किले को ढहा दिया गया।
बिहार में नीतीश कुमार दूर हो गए।
बंगाल में ममता बनर्जी अपने रास्ते पर चल रही हैं।
इस गठबंधन का यह हाल क्यों हुआ?
क्योंकि कांग्रेस यह तय ही नहीं कर पाई कि वह खुद क्या चाहती है?
अखिलेश यादव: नया नेतृत्व, नई ऊर्जा
अगर इस गठबंधन को फिर से खड़ा करना है, तो इसे एक ऊर्जावान, ज़मीनी और सर्वस्वीकार्य नेतृत्व चाहिए।
अखिलेश यादव के पक्ष में क्या है?
1. हर विपक्षी नेता से अच्छे संबंध।
2. ओबीसी पहचान, जिससे वह सामाजिक न्याय की राजनीति को धार दे सकते हैं।
3. राजनीतिक लचीलापन, जिससे वह कांग्रेस और अन्य दलों के बीच पुल का काम कर सकते हैं।
4. युवा ऊर्जा, जिससे गठबंधन को गतिशीलता मिल सकती है।
अगर इंडिया गठबंधन की बैठकें अखिलेश यादव के नेतृत्व में होंगी, तो आपसी दूरियां घटेंगी, संवाद बढ़ेगा और कांग्रेस की सामाजिक न्याय की राजनीति को ज़मीन मिलेगी।
आज राहुल गांधी जातिगत जनगणना और सामाजिक भागीदारी की बात कर रहे हैं, लेकिन वह खुद ओबीसी नहीं हैं, और कभी खुद को "जनेऊधारी ब्राह्मण" भी बता चुके हैं। इसलिए यह मुद्दा जनता के बीच वह आग नहीं जला पा रहा, जो अखिलेश जला सकते हैं।
इतिहास से सीखने का समय
1989 में जब वी.पी. सिंह विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत थे, तो संयुक्त मोर्चा ने अध्यक्ष के रूप में चौधरी देवीलाल को चुना। चुनाव के बाद देवीलाल ने प्रधानमंत्री पद छोड़कर वी.पी. सिंह का समर्थन किया।
अगर सोनिया गांधी त्याग कर महान हो सकती हैं, तो 1989 में देवीलाल ने भी वही किया था।
आज कांग्रेस को वही त्याग करना होगा। अगर वह गठबंधन को जीवित रखना चाहती है, तो उसे संयोजक का पद अखिलेश यादव को सौंपना होगा।
एक खिलाड़ी से टीम नहीं बनती
क्रिकेट में कोई भी खिलाड़ी एक साथ बल्लेबाज़ी, गेंदबाज़ी और फील्डिंग नहीं कर सकता।
राजनीति भी एक टीम गेम है। अगर विपक्ष को जीतना है, तो उसे टीम वर्क करना होगा।
अब समय आ गया है कि अखिलेश यादव को आगे लाया जाए।
अगर कांग्रेस ने फिर वही गलती दोहराई, तो 2029 में विपक्ष का अस्तित्व ही दांव पर लग जाएगा। **यह सिर्फ़ इंडिया गठबंधन की लड़ाई नहीं है, यह भारतीय लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है।
अब फैसला कांग्रेस को करना है—क्या वह अपने अतीत के बोझ से निकलकर एक नए भविष्य की ओर बढ़ेगी? या फिर एक और चुनाव हारने के लिए तैयार रहेगी?
- संपादकीय समाप्त
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