शनिवार, 30 अगस्त 2025
"बिहार की सच्चाई – 1990 से पहले के 30 साल और आज का सवाल"
✍️ लेखक: दुर्गेश यादव
आज जब भी बिहार की राजनीति और उसकी प्रगति या दुर्गति पर चर्चा होती है, तो कुछ लोग आँकड़े उठाकर 1990 के बाद का समय गिनाना शुरू कर देते हैं। खासतौर पर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जैसे लोग अक्सर यह कहते हैं कि 1990 से अब तक बिहार पिछड़ता चला गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या 1990 से पहले बिहार स्वर्गलोक था? क्या उस समय के शासकों ने बिहार को विकास, समानता और सम्मान का कोई ऐसा मॉडल दिया था, जिस पर गर्व किया जा सके?
30 साल तक एक ही वर्ग का शासन
1952 से 1990 तक बिहार की सत्ता पर ज्यादातर समय सवर्ण जाति के नेता मुख्यमंत्री रहे।
1. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह (भूमिहार)
2. बिनोदानंद झा (ब्राह्मण)
3. हरिहर सिंह (राजपूत)
4. केदार पांडे (ब्राह्मण)
5. चंद्रशेखर सिंह (राजपूत)
6. बिंदेश्वरी दुबे (ब्राह्मण)
7. भागवत झा आज़ाद (ब्राह्मण)
8. सत्येंद्र नारायण सिन्हा (राजपूत)
9. जगन्नाथ मिश्रा (ब्राह्मण)
इनके कार्यकाल को जोड़ दिया जाए, तो लगभग 35 साल तक बिहार पर एक ही वर्ग का दबदबा रहा। सवाल उठता है कि इन दशकों में बिहार को क्या मिला?
सामाजिक यथार्थ – विकास से वंचित समाज
उस दौर में बिहार शिक्षा, उद्योग और रोज़गार में लगातार पिछड़ता रहा।
साक्षरता दर देश में सबसे नीचे रही।
उद्योग धंधे चौपट हो गए, पलायन बढ़ा।
सड़क, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मूलभूत क्षेत्र उपेक्षित रहे।
लेकिन इन सबके बीच सबसे कड़वी सच्चाई सामाजिक असमानता की थी।
दलितों और पिछड़ों की स्थिति
आज जब हम लोकतंत्र, अधिकार और समानता की बात करते हैं, तो याद रखना चाहिए कि 1990 से पहले बिहार के गाँवों में दलितों और पिछड़ों की हालत इंसान से भी बदतर थी।
दलितों को "स्तन टैक्स" और "मुँह देखने का टैक्स" जैसी अमानवीय प्रथाएँ झेलनी पड़ती थीं।
वे स्कूल में पढ़ने का सपना भी नहीं देख सकते थे।
गाँव की सड़कों पर सर उठाकर चलना उनके लिए अपराध माना जाता था।
ज़मींदार और सामंती ताक़तें उन्हें इंसान से कमतर समझती थीं।
क्या यह सब उन्हीं 30 साल के शासनकाल में नहीं हुआ, जब सवर्ण मुख्यमंत्री सत्ता में थे?
प्रशांत किशोर का एकतरफा लेखा-जोखा
आज प्रशांत किशोर उर्फ प्रशांत पांडे बिहार के भविष्य और वर्तमान की गिनती करते हुए 1990 के बाद की राजनीति पर सवाल उठाते हैं। वे लालू-राबड़ी राज की आलोचना करते हैं, नीतीश कुमार की नीतियों पर प्रश्न खड़े करते हैं। लेकिन वे कभी यह नहीं बताते कि 1952 से 1990 तक सत्ता पर काबिज नेताओं ने बिहार को किस हालत में छोड़ा था।
अगर उस दौर में शिक्षा, रोज़गार, समानता और न्याय का माहौल बनाया गया होता, तो क्या 1990 के बाद की राजनीति में "सामाजिक न्याय" का नारा इतना प्रबल हो पाता?
असली सवाल
बिहार की जनता से 30 साल तक सत्ता का सुख भोगने वाले इन नेताओं ने क्या एक भी ऐसा मॉडल खड़ा किया, जिस पर आज बिहार गर्व कर सके?
क्या उन्होंने समाज के सबसे वंचित वर्गों को बराबरी का हक़ दिया?
क्या उन्होंने गरीबी, अशिक्षा और असमानता से बिहार को निकालने का कोई गंभीर प्रयास किया?
सच्चाई यह है कि उन्होंने बिहार को सामंती ढाँचे में जकड़े रखा। विकास की बजाय वर्चस्व और जातिगत वर्चस्व की राजनीति हावी रही।
निष्कर्ष
बिहार की दुर्गति की जड़ केवल 1990 के बाद की राजनीति में नहीं है। उसकी नींव तो 1952 से 1990 के बीच ही रख दी गई थी, जब एक ही वर्ग की राजनीति ने राज्य को शिक्षा, उद्योग और सामाजिक न्याय से वंचित रखा। इसलिए यदि प्रशांत किशोर या कोई भी विश्लेषक ईमानदारी से बिहार की तस्वीर पेश करना चाहते हैं, तो उन्हें पूरे इतिहास को देखना होगा, न कि आधा-अधूरा लेखा-जोखा पेश करना।
बिहार की असली कहानी यह है कि यहाँ के गरीब, दलित, पिछड़े और वंचित तब भी हाशिए पर थे और आज भी संघर्ष कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि 1990 के बाद उन्होंने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की।
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