रविवार, 31 अगस्त 2025

एससीओ शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग मुलाकात: आतंकवाद और कनेक्टिविटी पर वैश्विक दक्षिण के लिए नए संकेत

✍️ लेखक: दुर्गेश यादव! तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन इस बार विशेष रूप से चर्चा में रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात ने न केवल द्विपक्षीय संबंधों पर, बल्कि पूरे यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति पर गहरा असर डाला। पूर्व विदेश सचिव शशांक ने इस मुलाकात को लेकर कहा, “एससीओ, वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्रों के प्रमुख सदस्यों का दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है, जो महत्वपूर्ण है। हालांकि प्राथमिकताएं होनी चाहिए – पहली, आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी, भविष्य के लिए बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी का निर्माण करना।”* उनकी यह टिप्पणी न केवल भारत-चीन संबंधों को समझने का आधार देती है, बल्कि आने वाले वर्षों की वैश्विक कूटनीति को भी दिशा दिखाती है। एससीओ की बढ़ती अहमियत शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना 2001 में हुई थी और इसका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत और पाकिस्तान 2017 में इसके पूर्ण सदस्य बने। आज एससीओ एशिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय मंचों में गिना जाता है, जहां रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, मध्य एशियाई देश और अब ईरान जैसे देश भी शामिल हैं। इस संगठन की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इसमें एक साथ वैश्विक दक्षिण (Global South), यूरेशियन क्षेत्र और हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े देश शामिल हैं। यही कारण है कि एससीओ केवल एक क्षेत्रीय मंच नहीं, बल्कि एक वैश्विक कूटनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। मोदी-जिनपिंग मुलाकात का महत्व भारत और चीन के बीच संबंध पिछले कुछ वर्षों में तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर सीमा विवाद और गलवान की घटनाओं के बाद। ऐसे में तियानजिन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात को एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है। इस बैठक का सबसे बड़ा संदेश यह है कि दोनों देश अपने मतभेदों के बावजूद संवाद की राह बनाए रखना चाहते हैं। यह मुलाकात ऐसे समय पर हुई है जब दुनिया ऊर्जा संकट, महंगाई, यूक्रेन युद्ध और वैश्विक दक्षिण की चुनौतियों से जूझ रही है। भारत और चीन यदि सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो यह पूरे एससीओ को नई ऊर्जा दे सकता है। आतंकवाद पर लगाम: साझा प्राथमिकता शशांक ने सही कहा कि एससीओ की पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना होनी चाहिए। 1.क्षेत्रीय स्थिरता के लिए आवश्यक– मध्य एशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां अभी भी बड़ी चुनौती हैं। यदि इन पर नियंत्रण नहीं होता तो व्यापार और कनेक्टिविटी की कोई भी योजना असफल हो जाएगी। 2.भारत की सुरक्षा चिंता – भारत लंबे समय से सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। इसलिए एससीओ मंच भारत के लिए आतंकवाद पर वैश्विक सहमति बनाने का एक अवसर है। 3.चीन की चिंता – चीन के लिए भी शिंजियांग क्षेत्र में उग्रवाद और आतंकवाद एक समस्या है। इस लिहाज से भारत और चीन का सहयोग एक साझा मंच पर संभव हो सकता है। कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचा: भविष्य की कुंजी एससीओ का दूसरा बड़ा एजेंडा है कनेक्टिविटी और इंफ्रास्ट्रक्चर। अंतरराष्ट्रीय कॉरिडोर: चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और भारत की इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जोड़ सकते हैं। ऊर्जा सहयोग: रूस, ईरान और मध्य एशिया ऊर्जा संपन्न क्षेत्र हैं जबकि भारत और चीन बड़े उपभोक्ता हैं। बेहतर कनेक्टिविटी से ऊर्जा व्यापार सुगम होगा। डिजिटल कनेक्टिविटी: भविष्य केवल सड़कों और रेल का नहीं है, बल्कि डिजिटल और तकनीकी सहयोग का भी है। एससीओ इस दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। वैश्विक दक्षिण के लिए संकेत शशांक ने अपनी टिप्पणी में खासतौर पर वैश्विक दक्षिण (Global South) का जिक्र किया। वैश्विक दक्षिण के देश विकासशील अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्हें बुनियादी ढांचे और सुरक्षा दोनों की आवश्यकता है। एससीओ का मंच इन देशों को पश्चिमी देशों से अलग एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों की उपस्थिति से वैश्विक दक्षिण के छोटे देशों को रणनीतिक संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है। यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भूमिका एससीओ के भीतर सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह दो बड़े भू-राजनीतिक क्षेत्रों – यूरेशिया और हिंद-प्रशांत – को जोड़ता है। यूरेशियन क्षेत्र: यहां रूस और मध्य एशियाई देश प्रमुख खिलाड़ी हैं। ऊर्जा, सुरक्षा और भू-राजनीति यहां की प्रमुख चुनौतियां हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र: भारत, चीन और समुद्री व्यापार मार्ग इस क्षेत्र को वैश्विक शक्ति केंद्र बनाते हैं। यदि एससीओ इन दोनों क्षेत्रों को साझा हितों के आधार पर जोड़ता है, तो यह पश्चिमी गठबंधनों का एक सशक्त विकल्प बन सकता है। भारत की भूमिका भारत के लिए एससीओ केवल एक बहुपक्षीय मंच नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यह भारत को मध्य एशिया और रूस से जोड़ता है। भारत को आतंकवाद पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर देता है। ऊर्जा और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स में भारत की भूमिका को मजबूत करता है। चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के बावजूद सहयोग का एक संतुलित रास्ता दिखाता है। चुनौतियां और संभावनाएं हालांकि संभावनाएं बहुत हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं। 1.भारत-चीन सीमा विवाद – यदि इस पर ठोस प्रगति नहीं होती तो द्विपक्षीय सहयोग सीमित रह जाएगा। 2.पाकिस्तान की भूमिका – पाकिस्तान का रवैया एससीओ की एकता को प्रभावित कर सकता है। 3.पश्चिमी दबाव – अमेरिका और यूरोपीय देशों की नीतियां भी एससीओ देशों के फैसलों पर असर डालती हैं। इसके बावजूद, यदि भारत और चीन संवाद और सहयोग को आगे बढ़ाते हैं तो एससीओ भविष्य में वैश्विक व्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ बन सकता है। निष्कर्ष तियानजिन शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात केवल एक औपचारिक घटना नहीं थी, बल्कि वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन-हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए नए संकेत थी। पूर्व विदेश सचिव शशांक की यह राय कि *“पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी प्राथमिकता कनेक्टिविटी का निर्माण करना”– वास्तव में आने वाले वर्षों के लिए एससीओ के रोडमैप का आधार हो सकती है। भारत के लिए यह अवसर है कि वह एससीओ के माध्यम से अपनी वैश्विक भूमिका को और मजबूत करे, जबकि चीन के लिए यह मौका है कि वह सहयोग की राह पर चलते हुए विश्वास बहाल करे। यदि दोनों देश यह जिम्मेदारी निभाते हैं, तो एससीओ वास्तव में 21वीं सदी का सबसे प्रभावशाली बहुपक्षीय संगठन बन सकता है।

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