रविवार, 9 फ़रवरी 2025

शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज!

शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज! (संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️) इतिहास केवल विजेताओं की गाथा नहीं होता, बल्कि यह उन असंख्य संघर्षों की कहानी भी है जो दबे-कुचले वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ी। भारत का सामाजिक ताना-बाना सदियों से ऊँच-नीच, भेदभाव और शोषण की परतों में उलझा रहा है। विशेष रूप से दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को शिक्षा, संपत्ति और समानता के अधिकार से वंचित रखा गया। एक समय था जब इन समुदायों के बच्चों को पढ़ने का हक नहीं था। वे जमींदारों और उच्च वर्गों के घरों में मज़दूरी करने या खेतों में हल चलाने को मजबूर थे। उनकी मेहनत के बदले उन्हें केवल पेट भरने लायक कुछ रोटियाँ नसीब होती थीं। पशुपालन और खेती उनकी जीविका का साधन था, लेकिन इस पर भी शोषणकारी व्यवस्था हावी थी। जमींदार आदेश देते कि उनके घर घी, दूध और दही पहुँचाया जाए, और यदि किसी गरीब ने मना किया, तो उसे दंडित किया जाता था। जंगलों और बंजर ज़मीनों को उन्होंने अपने खून-पसीने से उपजाऊ बनाया, लेकिन अधिकार उन पर नहीं था—टैक्स वसूलने के लिए राजा और जमींदार पहले से मौजूद थे। ब्रिटिश राज में परिवर्तन की हल्की आहट ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में शिक्षा, प्रशासन और कानूनी सुधारों की शुरुआत की, जिससे वंचित वर्गों को नाममात्र की राहत मिली। शिक्षा के क्षेत्र में कुछ दरवाज़े खुले, जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनने लगे, लेकिन यह बदलाव ऊपरी सतह तक सीमित था। सामाजिक कुरीतियाँ अभी भी मजबूत थीं और शोषण की जड़ें गहरी थीं। आज़ादी के बाद का बदलाव स्वतंत्रता के बाद भारत में सबसे बड़ा सामाजिक-आर्थिक सुधार भूमि सुधार कानूनों के रूप में आया। जो ज़मीन कभी जमींदारों और राजाओं के कब्जे में थी, उसे उन्हीं किसानों और मज़दूरों के नाम किया गया, जो पीढ़ियों से उस पर मेहनत कर रहे थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव हुआ, दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था बनी, जिससे उन्हें समान अवसरों की शुरुआत मिली। लेकिन क्या यह संघर्ष समाप्त हो गया? भूलती जा रही है संघर्ष की गाथा आज की पीढ़ी इस इतिहास से अनजान होती जा रही है। जिस सामाजिक बदलाव की नींव उनके पूर्वजों ने अपने अधिकारों की लड़ाई से रखी, उसकी कीमत को समझने की जरूरत है। आज अवसर हैं, लेकिन समानता की पूरी लड़ाई अभी भी अधूरी है। शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता को मजबूत करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अधिकार किसी की दी हुई भीख नहीं, बल्कि संघर्ष से अर्जित की गई उपलब्धि है। जब तक इस इतिहास की चेतना जीवित रहेगी, तब तक समाज में समानता और न्याय की लौ जलती रहेगी।

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