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कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.!

कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.! हम एक लोकतंत्र में जी रहे हैं। एक ऐसा लोकतंत्र, जहां हर नागरिक को समान अवसर, समान सम्मान और समान अभिव्यक्ति का अधिकार है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो रहा है? कभी-कभी लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ़ एक सजावटी फ्रेम टंगा है — जिसमें सत्ता का चेहरा बार-बार बदलता है, लेकिन उसका चरित्र वही रहता है। आज हम एक अजीब दृश्य देख रहे हैं। एक व्यक्ति, जिसका न कोई विधायक है, न सांसद, न कोई जन आंदोलन और न ही जनाधार — फिर भी देश की सबसे बड़ी मीडिया संस्थाएं उसके पीछे भाग रही हैं। वो व्यक्ति है — प्रशांत किशोर पांडे, और उसकी पार्टी — जनसुराज। मीडिया का झुकाव — इत्तेफ़ाक़ नहीं, एजेंडा है जनसुराज पार्टी की जमीनी हकीकत क्या है, यह बिहार का हर गांव जानता है। लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ, टीवी की प्राइम टाइम बहसें, अख़बारों के पहले पन्ने — सब इस एक व्यक्ति को इतनी तवज्जो क्यों देते हैं? क्या ये मुफ्त की मोहब्बत है? नहीं। ये उस सत्ता संरचना का हिस्सा है, जिसे ‘इकोसिस्टम’ कहा जाता है। एक ऐसा इकोसिस्टम, जो अपने जातीय और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए किसी को भी नेता बना ...

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं.

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं..." ✍️ 'By Durgesh Yadav' "जब समाज मंदिर-मस्जिद में उलझा हो, और स्कूलों पर ताले लगे हों, तो कोई क्रांति नहीं आती — सिर्फ अंधेरा फैलता है।" आज हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ देश तकनीक, अंतरिक्ष और वैश्विक नेतृत्व की बातें कर रहा है। लेकिन ज़रा पीछे मुड़िए... गाँव की ओर देखिए... जहाँ स्कूल हैं — पर बच्चे नहीं। जहाँ शिक्षक हैं — पर पढ़ाई नहीं। जहाँ बिल्डिंग है — पर माहौल नहीं। 🔍सवाल यह नहीं कि स्कूल हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या वहाँ ‘शिक्षा’ है? हर चौराहे पर शराब की दुकान सजती है, युवा धर्म के नारों में उलझे हैं, और स्कूल...? वो या तो बंद पड़े हैं, या नाम मात्र के लिए चल रहे हैं। 📉क्या वजह है कि आज गरीब माता-पिता भी महंगे प्राइवेट स्कूलों की ओर भाग रहे हैं? ₹1500–12000 तक की मनमानी फीस, किताबें, ड्रेस, ट्रांसपोर्ट का बोझ, फिर भी वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहते। क्यों? क्योंकि उन्हें स्कूल की इमारत नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता चाहिए। और यही गुणवत्ता उन्हें सरकारी स्कूल में नहीं मिल रही।...

शिक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल.?

िक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल आज हमारा देश एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। आज़बाद एक सपना देखा गया था – हर घर में शिक्षा का दीपक जले, हर बच्चा स्कूल जाए, और एक सशक्त, शिक्षित भारत का निर्माण हो। लेकिन आज हालात कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। सरकार की तरफ से गांवों के सरकारी स्कूलों को “मर्ज़” (विलय) के नाम पर बंद किया जा रहा है। कारण बताया जाता है कि स्कूलों में 20 से कम बच्चे हैं। सवाल ये उठता है – क्या यही आखिरी उपाय है? क्या कोई दूरदर्शी योजना नहीं बन सकती थी? गांव के बच्चों की शिक्षा पर संकट ये फैसला सीधे-सीधे दूरदराज़ के गांवों में रहने वाले बच्चों की शिक्षा को संकट में डाल देता है। उन बच्चों के लिए जो पहले ही शिक्षा से दूर थे, अब स्कूल ही बंद हो जाने से उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता। सरकारी आंकड़ों से परे, जमीनी सच्चाई ये है कि अब लोग अपने बच्चों को भारी फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पसंद कर रहे हैं। क्यों? क्यों छोड़ा जा रहा है सरकारी स्कूल? शिक्षकों की भारी कमी है। जो शिक्षक हैं भी, वे पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते। स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं न...