कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.!
कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.! हम एक लोकतंत्र में जी रहे हैं। एक ऐसा लोकतंत्र, जहां हर नागरिक को समान अवसर, समान सम्मान और समान अभिव्यक्ति का अधिकार है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो रहा है? कभी-कभी लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ़ एक सजावटी फ्रेम टंगा है — जिसमें सत्ता का चेहरा बार-बार बदलता है, लेकिन उसका चरित्र वही रहता है। आज हम एक अजीब दृश्य देख रहे हैं। एक व्यक्ति, जिसका न कोई विधायक है, न सांसद, न कोई जन आंदोलन और न ही जनाधार — फिर भी देश की सबसे बड़ी मीडिया संस्थाएं उसके पीछे भाग रही हैं। वो व्यक्ति है — प्रशांत किशोर पांडे, और उसकी पार्टी — जनसुराज। मीडिया का झुकाव — इत्तेफ़ाक़ नहीं, एजेंडा है जनसुराज पार्टी की जमीनी हकीकत क्या है, यह बिहार का हर गांव जानता है। लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ, टीवी की प्राइम टाइम बहसें, अख़बारों के पहले पन्ने — सब इस एक व्यक्ति को इतनी तवज्जो क्यों देते हैं? क्या ये मुफ्त की मोहब्बत है? नहीं। ये उस सत्ता संरचना का हिस्सा है, जिसे ‘इकोसिस्टम’ कहा जाता है। एक ऐसा इकोसिस्टम, जो अपने जातीय और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए किसी को भी नेता बना ...