रविवार, 20 जुलाई 2025

कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.!

कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.! हम एक लोकतंत्र में जी रहे हैं। एक ऐसा लोकतंत्र, जहां हर नागरिक को समान अवसर, समान सम्मान और समान अभिव्यक्ति का अधिकार है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो रहा है? कभी-कभी लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ़ एक सजावटी फ्रेम टंगा है — जिसमें सत्ता का चेहरा बार-बार बदलता है, लेकिन उसका चरित्र वही रहता है। आज हम एक अजीब दृश्य देख रहे हैं। एक व्यक्ति, जिसका न कोई विधायक है, न सांसद, न कोई जन आंदोलन और न ही जनाधार — फिर भी देश की सबसे बड़ी मीडिया संस्थाएं उसके पीछे भाग रही हैं। वो व्यक्ति है — प्रशांत किशोर पांडे, और उसकी पार्टी — जनसुराज। मीडिया का झुकाव — इत्तेफ़ाक़ नहीं, एजेंडा है जनसुराज पार्टी की जमीनी हकीकत क्या है, यह बिहार का हर गांव जानता है। लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ, टीवी की प्राइम टाइम बहसें, अख़बारों के पहले पन्ने — सब इस एक व्यक्ति को इतनी तवज्जो क्यों देते हैं? क्या ये मुफ्त की मोहब्बत है? नहीं। ये उस सत्ता संरचना का हिस्सा है, जिसे ‘इकोसिस्टम’ कहा जाता है। एक ऐसा इकोसिस्टम, जो अपने जातीय और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए किसी को भी नेता बना सकता है — और किसी को भी ‘नौवीं फेल’ कहकर खारिज कर सकता है। “नौवीं फेल” — एक शब्द नहीं, जातीय घृणा का प्रतीक तेजस्वी यादव पर लगातार “नौवीं फेल” कहकर हमला किया जाता है। ये हमला सिर्फ़ उनकी पढ़ाई पर नहीं है — ये हमला है उनके होने पर। उनके ओबीसी होने पर। उनके गरीब-पिछड़े पृष्ठभूमि से आने पर। उनके उस संघर्ष पर, जो हर उस नौजवान का प्रतिनिधित्व करता है जो पहली बार अपने गांव, अपने समाज, अपनी जाति से निकलकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचा है। क्या शिक्षा सिर्फ तेजस्वी के लिए मापदंड है? कभी किसी ने उनसे ये नहीं पूछा जिनके पास डिग्री तो है, पर न ज्ञान है, न संवेदनशीलता। कभी किसी ने उन सांसदों पर सवाल नहीं उठाए जिनकी डिग्रियाँ झूठी पाई गईं, या जो जातीय गठबंधन और पैसों के दम पर संसद पहुँचे। तो फिर तेजस्वी क्यों? क्योंकि वो “पिछड़े” हैं — और “नेता” बनने लगे हैं भारत की राजनीति में जब कोई दलित या पिछड़ा नौजवान सत्ता के करीब आने लगता है, तो एक पूरा ‘इकोसिस्टम’ सक्रिय हो जाता है — उसकी योग्यता पर शक किया जाता है, उसकी भाषा का मज़ाक उड़ाया जाता है, और उसकी जाति को उसकी सबसे बड़ी ‘कमज़ोरी’ बना दिया जाता है। प्रशांत किशोर इस इकोसिस्टम के चेहरे हैं। वे खुद को विकास का मसीहा बताते हैं, लेकिन उनका असल उद्देश्य सत्ता की ‘सामाजिक बनावट’ को जस का तस बनाए रखना है — जिसमें नेतृत्व का अधिकार कुछ ख़ास जातियों तक सीमित रहे। तेजस्वी की आलोचना — ज़रूरी है, लेकिन ईमानदार हो तेजस्वी यादव पर सवाल ज़रूर उठाइए — उनकी सरकार क्या कर रही है, क्या नहीं कर पा रही है — इस पर खुलकर बहस होनी चाहिए। लेकिन बहस उस बात पर होनी चाहिए जो नीतिगत हो, *विकास* से जुड़ी हो — ना कि उस बात पर जो उनकी जाति, पढ़ाई या भाषा को निशाना बनाए। राजनीतिक आलोचना, अगर जातीय अपमान में बदल जाए, तो वो लोकतंत्र का नहीं, वर्णव्यवस्था का विस्तार बन जाती है। ये लड़ाई तेजस्वी बनाम किशोर की नहीं है ये लड़ाई प्रतिनिधित्व बनाम प्रभुत्व की है। ये लड़ाई है कि क्या भारत में कोई पिछड़ा, गरीब, ओबीसी, दलित — नेतृत्व की ऊंचाई तक पहुंच सकता है या नहीं। क्या संविधान का सपना — जिसमें सबको बराबरी का अधिकार है — हकीकत बन पाएगा या हम फिर से ‘मनु की व्यवस्था’ की तरफ लौट जाएंगे? निष्कर्ष: कैमरे, जो कभी जनता की आंखें थे — अब सत्ता के एजेंडे के औज़ार बनते जा रहे हैं। और आज जब कैमरा किसी विधायक, सांसद या जननेता की तरफ़ नहीं, बल्कि एक “सवर्ण सलाहकार” की तरफ़ बार-बार मुड़ता है, तो समझ जाइए — ये सिर्फ़ एक मीडिया ट्रेंड नहीं, बल्कि एक गहरी राजनीतिक-सामाजिक साजिश है। अब सवाल जनता से है — आप कैमरे की दिशा में चलेंगे, या हकीकत की तरफ़ देखेंगे? लेखक: स्वतंत्र विचारक श्रेणी: सामाजिक न्याय | लोकतांत्रिक विमर्श | राजनीतिक विश्लेषण

शनिवार, 12 जुलाई 2025

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं.

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं..." ✍️ 'By Durgesh Yadav' "जब समाज मंदिर-मस्जिद में उलझा हो, और स्कूलों पर ताले लगे हों, तो कोई क्रांति नहीं आती — सिर्फ अंधेरा फैलता है।" आज हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ देश तकनीक, अंतरिक्ष और वैश्विक नेतृत्व की बातें कर रहा है। लेकिन ज़रा पीछे मुड़िए... गाँव की ओर देखिए... जहाँ स्कूल हैं — पर बच्चे नहीं। जहाँ शिक्षक हैं — पर पढ़ाई नहीं। जहाँ बिल्डिंग है — पर माहौल नहीं। 🔍सवाल यह नहीं कि स्कूल हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या वहाँ ‘शिक्षा’ है? हर चौराहे पर शराब की दुकान सजती है, युवा धर्म के नारों में उलझे हैं, और स्कूल...? वो या तो बंद पड़े हैं, या नाम मात्र के लिए चल रहे हैं। 📉क्या वजह है कि आज गरीब माता-पिता भी महंगे प्राइवेट स्कूलों की ओर भाग रहे हैं? ₹1500–12000 तक की मनमानी फीस, किताबें, ड्रेस, ट्रांसपोर्ट का बोझ, फिर भी वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहते। क्यों? क्योंकि उन्हें स्कूल की इमारत नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता चाहिए। और यही गुणवत्ता उन्हें सरकारी स्कूल में नहीं मिल रही। 🎯 सबूत हमारे ही सिस्टम में छिपा है: 👉 नवोदय विद्यालय 👉 केंद्रीय विद्यालय ये भी तो सरकारी स्कूल हैं। फिर क्यों यहाँ बच्चे टूटकर प्रवेश चाहते हैं? क्योंकि वहाँ: बेहतर शिक्षक हैं, बेहतर संसाधन हैं, और सबसे महत्वपूर्ण — नियत और निगरानी है। 🧩तो क्या बाकी सरकारी स्कूलों का सुधरना असंभव है? बिलकुल नहीं। समस्या यह नहीं कि पैसा नहीं है, समस्या है — प्राथमिकता नहीं है। सरकारें शिक्षा को "योजना" की तरह देखती हैं, जबकि यह तो राष्ट्र निर्माण की नींव है। 📌 गांवों के स्कूलों की उदासीनता का कारण एक ही है — वहां पढ़ने वाले बच्चे ‘सिस्टम’ के नहीं हैं। * न वो किसी बड़े अफसर के बच्चे हैं, * न किसी मंत्री के, * और न किसी अमीर के। वे गरीब हैं। उनके पास विकल्प नहीं है — इसलिए उनकी आवाज़ भी नहीं है। ✅ समाधान की ओर पहला कदम – सामूहिक चेतना और भागीदारी: 1.हर गाँव में शिक्षा निगरानी समिति बने – जो मासिक रिपोर्टिंग करे। 2. शिक्षकों की उपस्थिति और गुणवत्ता का स्वतंत्र ऑडिट हो। 3.जनप्रतिनिधियों को जवाबदेह बनाया जाए — हर ब्लॉक में शिक्षा रिपोर्ट कार्ड बने। 4.पब्लिक-प्राइवेट भागीदारी से संसाधन जोड़े जाएं। 🔔 अब भी वक़्त है... > हम अगर अब भी नहीं चेते, > तो अगली पीढ़ी केवल मजदूर, ड्राइवर और नौकर बनकर रह जाएगी, > और हम सोचते रह जाएंगे कि "हमने तो स्कूल खुलवाया था…" शिक्षा का सवाल अब केवल नीति का नहीं, न्याय का है। 🙏 आइए, एकजुट होकर सवाल पूछें, आवाज़ उठाएं और परिवर्तन की शुरुआत करें। क्योंकि… 📝 “जब आखिरी स्कूल बंद हो जाएगा, तब हमें एहसास होगा कि मंदिर और मस्जिद की बहसें हमें कहीं नहीं ले गईं।” \#शिक्षा\_का\_अधिकार #RuralEducation #SchoolReform #LinkedInForChange #BharatKaBhavishya #VoiceForChildren #DurgeshKumarYadav #RuralReformBrigade #Navodaya #KendriyaVidyalaya #GovernmentSchools #EducationMatters

रविवार, 6 जुलाई 2025

शिक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल.?

िक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल आज हमारा देश एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। आज़बाद एक सपना देखा गया था – हर घर में शिक्षा का दीपक जले, हर बच्चा स्कूल जाए, और एक सशक्त, शिक्षित भारत का निर्माण हो। लेकिन आज हालात कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। सरकार की तरफ से गांवों के सरकारी स्कूलों को “मर्ज़” (विलय) के नाम पर बंद किया जा रहा है। कारण बताया जाता है कि स्कूलों में 20 से कम बच्चे हैं। सवाल ये उठता है – क्या यही आखिरी उपाय है? क्या कोई दूरदर्शी योजना नहीं बन सकती थी? गांव के बच्चों की शिक्षा पर संकट ये फैसला सीधे-सीधे दूरदराज़ के गांवों में रहने वाले बच्चों की शिक्षा को संकट में डाल देता है। उन बच्चों के लिए जो पहले ही शिक्षा से दूर थे, अब स्कूल ही बंद हो जाने से उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता। सरकारी आंकड़ों से परे, जमीनी सच्चाई ये है कि अब लोग अपने बच्चों को भारी फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पसंद कर रहे हैं। क्यों? क्यों छोड़ा जा रहा है सरकारी स्कूल? शिक्षकों की भारी कमी है। जो शिक्षक हैं भी, वे पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते। स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं – न शौचालय, न पीने का पानी, न बैठने की व्यवस्था। कई जगहों पर जातिगत भेदभाव और धार्मिक पक्षपात बच्चों के मन में डर और हीन भावना भर देते हैं। सरकारी स्कूल में पढ़ने वाला बच्चा अक्सर खुद को दोयम दर्जे का समझता है, और यह हमारे भविष्य के साथ अन्याय है। शराब के ठेके हर चौराहे पर – क्या यही विकास है? एक तरफ तो स्कूलों को बच्चों की संख्या कम होने पर बंद किया जा रहा है, लेकिन दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में 27,000 से ज़्यादा शराब के ठेके खोल दिए गए हैं। अब गांव के हर चौराहे, हर मोड़ पर शराब का ठेका मिल जाएगा। क्या सरकार के लिए राजस्व (revenue) बढ़ाना ही सबसे बड़ा मकसद रह गया है? क्या शराब से कमाए गए पैसे से ही हम राष्ट्र का निर्माण करेंगे? मीडिया और धर्म की राजनीति टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर अब दिन-रात सिर्फ हिंदू-मुस्लिम,मंदिर-मस्जिद, जाति और धर्म के झगड़े दिखाई देते हैं। असली मुद्दे – शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोज़गारी, महिला सुरक्षा – कहीं गुम हो गए हैं। मीडिया को अब देश के विकास से कोई लेना-देना नहीं। TRP की होड़ में वो बस आग लगाना जानती है। अब क्या किया जाए? गांव के स्कूलों को बंद करने की बजाय सुधार किया जाए। स्कूलों में स्थायी और प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति हो। स्थानीय पंचायत और समाजसेवी संस्थाओं को स्कूल संचालन में जोड़ा जाए। शराब के ठेकों की जगह पुस्तकालय, स्पोर्ट्स क्लब और स्किल सेंटर खोले जाएं। सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता और विश्वास को बहाल करने के लिए जन अभियान चलाया जाए। अंत में – शिक्षा ही राष्ट्र का भविष्य है। अगर हमने आज गांवों के स्कूल बंद कर दिए, तो कल गांवों से उजाला हमेशा के लिए चला जाएगा। शिक्षा का दीपक बुझ गया, तो देश की रोशनी भी बुझ जाएगी। समय है – हम सब एक साथ खड़े हों और कहें: "शिक्षा बचाओ – गांव बचाओ – देश बचाओ!" ✍️ स्वतंत्र लेखक / संपादक दुर्गेश यादव

राजनीति के मोहरे नहीं, बदलाव के वाहक बनें — यूपी-बिहार के युवाओं का भविष्य

“कदम मिलाओ नौजवानो, देश की डगर तुम्हारे पैरों से तय होगी।” भारत की युवा शक्ति दुनिया की सबसे बड़ी है, और उसका केंद्र है — उत्तर प्रदेश और ब...