किराएदारों की खामोश पीड़ा—एक अदृश्य शोषण

देश की गलियों और चौकों में आए दिन छोटी-छोटी घटनाओं पर धरना-प्रदर्शन, नारेबाज़ी और आंदोलन देखने को मिलते हैं। सरकारें नए-नए वादे करती हैं, विकास के दावे पेश किए जाते हैं। लेकिन इन्हीं नारों और वादों के शोर में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सबसे अधिक पीड़ित है, परंतु खामोश है। शायद उसने मान लिया है कि उसकी आवाज़ कभी संसद के गलियारों तक नहीं पहुँचेगी। यह वर्ग है—किराएदारों का, जिनमें हर मज़दूर, हर प्रवासी, हर छात्र शामिल है, जो घर से दूर काम या पढ़ाई की तलाश में निकलता है। शहरों और कस्बों में किराए पर रहने वाले लोगों की ज़िंदगी आसान नहीं है। एक ओर रोज़गार और पढ़ाई का दबाव, दूसरी ओर मकान मालिकों और पीजी संचालकों का मनमाना रवैया। कमरे छोटे से छोटे होते जा रहे हैं, लेकिन किराया लगातार बढ़ रहा है। किराए की कोई सीमा तय नहीं है—मालिक का मन ही नियम है। नतीजा यह कि मज़दूर अपनी आधी से ज़्यादा कमाई, और छात्र अपनी अधिकांश पारिवारिक मदद सिर्फ किराए में खर्च कर देता है। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि किराएदार के पास अपनी कमाई का हिसाब तक नहीं बचता। एक रिपोर्ट के अनुसार, महानगरों में रहने वाले एक सामान्य कर्मचारी की आय का लगभग 40% हिस्सा किराए में चला जाता है। मज़दूर वर्ग और भी अधिक पीड़ा झेलता है, जहाँ अक्सर आधी आय सिर पर छत के नाम पर खर्च हो जाती है। समस्या केवल किराए की अधिकता तक सीमित नहीं है। मकान मालिक और पीजी संचालक बिजली-पानी पर मनमाने नियम थोपते हैं। "इतनी ही बिजली जलेगी," "इतने बजे तक पानी चलेगा," "मेहमान नहीं आ सकते"—ये शर्तें आम हो चुकी हैं। किराएदार अपने ही पैसे से घर लेता है, पर उसका इस्तेमाल करने का अधिकार तक सीमित कर दिया जाता है। यह स्थिति कहीं न कहीं आधुनिक युग की गुलामी जैसी प्रतीत होती है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि किराए का अधिकांश लेन-देन नकद में होता है। न कोई रसीद, न कोई प्रमाण। यदि किराएदार ऑनलाइन भुगतान की माँग करे, तो जवाब मिलता है—"नहीं चाहिए तो कमरा खाली कर दो।"यह दबाव और असुरक्षा हर महीने किराएदार की ज़िंदगी में एक नए डर का संचार करती है। इससे न केवल किराएदार का शोषण होता है, बल्कि देश को भी टैक्स चोरी के रूप में नुकसान उठाना पड़ता है। हमारे देश के किराया कानून भी इस अन्याय से लड़ने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। 1948 का किराया नियंत्रण अधिनियम आज की परिस्थितियों के हिसाब से बिल्कुल अप्रासंगिक हो चुका है। राज्यों ने अपने-अपने कानून तो बनाए, लेकिन उनका पालन मुश्किल से होता है। परिणाम यह है कि किराएदार आज भी पूरी तरह असुरक्षित है। आख़िरकार सवाल यह है कि सरकारें इस मुद्दे पर मौन क्यों हैं? जब किसान, छात्र या व्यापारी सड़कों पर उतरते हैं, तो तुरंत राजनीतिक हलचल शुरू हो जाती है। मगर किराएदारों का वर्ग इतना बड़ा होने के बावजूद खामोश क्यों है? शायद इसलिए कि यह वर्ग बिखरा हुआ है, संगठित नहीं है। और यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन चुका है। अब समय है कि इस मुद्दे को गंभीरता से लिया जाए। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है— 1. हर शहर में किराया नियंत्रण बोर्ड बने, जहाँ किराएदार अपनी शिकायत दर्ज करा सके। 2. हर किराए का भुगतान ऑनलाइन और पंजीकृत किया जाए। 3. किराए में बढ़ोतरी की एक वार्षिक सीमा तय हो। 4. मजदूरों, कर्मचारियों और छात्रों के लिए सस्ते व सम्मानजनक आवास योजनाएँ शुरू की जाएँ। 5. किरायेदारों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई जाए। भारत यदि वास्तव में “विश्वगुरु” बनने का सपना देख रहा है, तो उसे सबसे पहले अपने नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना होगा। सिर पर छत केवल एक भौतिक सुविधा नहीं, बल्कि सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक है। जब देश का मज़दूर, प्रवासी और छात्र ही अपने अधिकारों से वंचित रहेगा, तो विकास के सारे दावे अधूरे रहेंगे। किराएदारों का दर्द खामोश है, लेकिन अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब वक्त है कि इस खामोश वर्ग की आवाज़ संसद के गलियारों तक पहुँचे और उन्हें उनका हक़ मिले। ✍️दुर्गेश यादव! संपादकीय लेख कैसा लगा अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं! धन्यवाद!

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