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हिंदी दिवस: हमारी भाषा, हमारी पहचान

14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाना हमारे लिए केवल एक औपचारिकता नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह आत्ममंथन का समय है। हिंदी सिर्फ एक भाषा नहीं, यह हमारी संस्कृति, पहचान, और अस्तित्व का प्रतिबिंब है। परंतु आज, जिस प्रकार से हिंदी के प्रति समाज में उदासीनता बढ़ रही है, वह चिंता का विषय है। क्या हिंदी दिवस का महत्व केवल सरकारी दफ्तरों में भाषणों और प्रतियोगिताओं तक सीमित रह गया है, या इसका कोई गहरा संदर्भ भी है? भारत की स्वतंत्रता के बाद, संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। इस निर्णय ने हिंदी को एकता की डोर में बांधने का काम किया, क्योंकि यह देश की व्यापक जनसंख्या द्वारा बोली और समझी जाती थी। परंतु, जैसे-जैसे देश ने प्रगति की, वैसी ही हमारी भाषाई प्राथमिकताएँ भी बदलने लगीं। अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व हमारे शिक्षा, व्यापार, और तकनीकी क्षेत्रों में हावी हो गया, और हिंदी कहीं पीछे छूटने लगी। आज की पीढ़ी के लिए हिंदी केवल एक विषय बनकर रह गई है, जबकि अंग्रेजी में पारंगत होना प्रतिष्ठा का प्रतीक बन चुका है। सवाल यह है कि क्या हिंदी को अपनाना हमें पीछे धकेल देगा?...

बदलाव: समय की अनिवार्यता और प्रगति का पथ!

बदलाव प्रकृति का शाश्वत नियम है, और इसे अपनाने वाला ही समय के साथ आगे बढ़ता है। जो बदलाव का विरोध करता है, वह समय की धारा में पीछे छूट जाता है। यह नियम न केवल व्यवसाय और तकनीक में लागू होता है, बल्कि जीव-जगत, समाज और मानव जीवन पर भी उतना ही प्रभावी है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि समय के साथ खुद को न बदलने वालों का अस्तित्व धीरे-धीरे समाप्त हो जाता है। मोबाइल फोन की दुनिया में एक समय था जब नोकिया का नाम हर किसी की जुबान पर था। उसकी सादगी, मजबूती, और विश्वसनीयता ने इसे बाजार में सबसे ऊँचे स्थान पर पहुंचा दिया था। लेकिन जब स्मार्टफोन का युग आया और एंड्रॉयड प्लेटफॉर्म ने बाजार में कदम रखा, नोकिया ने समय के इस बदलाव को नज़रअंदाज़ कर दिया। उसने एंड्रॉयड को अपनाने से इंकार किया और अपने पुराने ऑपरेटिंग सिस्टम पर अड़ा रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि एंड्रॉयड आधारित कंपनियों जैसे सैमसंग, शाओमी आदि ने बाजार पर कब्जा कर लिया और नोकिया धीरे-धीरे बाजार से बाहर हो गया। अम्बेसडर: एक युग का अंत इसी तरह, भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग में अम्बेसडर कार का नाम किसी समय सम्मान और रुतबे का प्रतीक था। सरकारी ...

धर्मांतरण की दुविधा: जातिगत पहचान की अवहेलना

संपादकीय: 🖊️ दुर्गेश यादव! भारत में धर्मांतरण का इतिहास एक गहरी सामाजिक संरचना और जटिलताओं का प्रतिबिंब है। जब तलवार की धार और सत्ता की धमक के सामने कुछ हिंदू मुसलमान बने, तो वे अपनी जातिगत पहचान को साथ लेकर गए। यह दिखाता है कि धर्म का बदलना संभव है, परंतु जाति की पहचान को मिटाना उतना ही कठिन। धर्मांतरण के बाद भी, ब्राह्मण सय्यद बन गए और राजपूत पठान, लेकिन उनकी मूल जातिगत पहचान के चिन्ह अब भी उनके जीवन में दिखते हैं। यह स्थिति एक विडंबना प्रस्तुत करती है—धर्म बदला, पर जातिगत असमानताएं वहीं की वहीं बनी रहीं। हिंदू समाज में जो जातियाँ पहले से ही वर्चस्व में थीं, धर्मांतरण के बाद भी अपने विशेषाधिकार को छोड़ने में सक्षम नहीं हुईं। इसके बावजूद, धर्मांतरण का कोई ठोस लाभ उन लोगों को नहीं मिला, जो इस प्रक्रिया में शामिल हुए। आज भी, ये मुसलमान बनी जातियाँ अपने हिंदू समकक्षों की तुलना में आर्थिक और शैक्षिक रूप से पीछे हैं। परंतु इस पूरी प्रक्रिया में दो जातियाँ प्रमुख रूप से धर्मांतरण से दूर रहीं—यादव और वैश्य। यादव, जो गोपालक जाति के रूप में अपनी पहचान रखते हैं, शायद अपने पारंपरिक और धार्मि...

भारतीय राजनीति की कूटनीति: वंचितों के अधिकारों पर खतरा!

संपादकीय: ✍️ दुर्गेश यादव! आज का भारत, जो विविधता और सांस्कृतिक धरोहरों का प्रतीक माना जाता है, जातीय राजनीति के चंगुल में फंसता जा रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक के लिए जातीय और सांप्रदायिक एजेंडों का इस्तेमाल एक सामान्य प्रथा बन गई है। यह प्रथा न केवल समाज में विभाजन को बढ़ावा देती है, बल्कि देश के विकास को भी अवरुद्ध करती है। वोट की राजनीति में जातीयता का जमकर इस्तेमाल होता है। चुनावी मैदान में जाति और धर्म के नाम पर भावनाएं भड़काई जाती हैं, लेकिन सत्ता प्राप्त करने के बाद उन्हीं वंचित तबकों के मुद्दों को भुला दिया जाता है जिनके नाम पर वोट मांगे गए थे। इन दलों के लिए, सत्ता में आने के बाद असली प्राथमिकता उन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को हल करना नहीं है जिनसे वंचित वर्ग जूझ रहा है, बल्कि वे अपने राजनीतिक एजेंडों को पूरा करने में लग जाते हैं। शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव वंचित तबकों की समस्याओं को और भी जटिल बना देता है। सरकारी और प्राइमरी स्कूलों की हालत देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा का अधिकार केवल कागजों पर ही सीमित रह गया है। इन स्कू...