भारतीय राजनीति की कूटनीति: वंचितों के अधिकारों पर खतरा!
संपादकीय: ✍️ दुर्गेश यादव!
आज का भारत, जो विविधता और सांस्कृतिक धरोहरों का प्रतीक माना जाता है, जातीय राजनीति के चंगुल में फंसता जा रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक के लिए जातीय और सांप्रदायिक एजेंडों का इस्तेमाल एक सामान्य प्रथा बन गई है। यह प्रथा न केवल समाज में विभाजन को बढ़ावा देती है, बल्कि देश के विकास को भी अवरुद्ध करती है।
वोट की राजनीति में जातीयता का जमकर इस्तेमाल होता है। चुनावी मैदान में जाति और धर्म के नाम पर भावनाएं भड़काई जाती हैं, लेकिन सत्ता प्राप्त करने के बाद उन्हीं वंचित तबकों के मुद्दों को भुला दिया जाता है जिनके नाम पर वोट मांगे गए थे। इन दलों के लिए, सत्ता में आने के बाद असली प्राथमिकता उन सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को हल करना नहीं है जिनसे वंचित वर्ग जूझ रहा है, बल्कि वे अपने राजनीतिक एजेंडों को पूरा करने में लग जाते हैं।
शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव वंचित तबकों की समस्याओं को और भी जटिल बना देता है। सरकारी और प्राइमरी स्कूलों की हालत देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा का अधिकार केवल कागजों पर ही सीमित रह गया है। इन स्कूलों में सीमित संसाधनों और शिक्षकों की कमी के कारण गरीब और वंचित वर्ग के बच्चे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हो जाते हैं। इससे उनकी नींव कमजोर होती है, और वे भविष्य में बेहतर अवसरों से भी महरूम रह जाते हैं।
नौकरियों के मामले में भी वंचित वर्गों के साथ अन्याय होता आ रहा है। एनएफएस (NFS) सिस्टम, कॉलेजियम सिस्टम, और लैटरल एंट्री जैसी प्रक्रियाओं के माध्यम से वंचित वर्गों को नौकरी के अवसरों से वंचित करना केवल एक नई तरह की असमानता को बढ़ावा दे रहा है। यह नीतियां दिखाती हैं कि किस प्रकार सत्ता में बैठे लोग जनता के अधिकारों की रक्षा करने के बजाय, वंचितों के अधिकारों को सीमित करने के लिए योजनाएं बना रहे हैं।
जातीय राजनीति का यह खेल समाज के लिए घातक साबित हो सकता है। यह केवल चुनावी जीत के लिए खेला गया एक खेल नहीं है, बल्कि इससे समाज के कमजोर तबकों का भविष्य दांव पर लग जाता है। उनके अधिकार, शिक्षा, और रोजगार के अवसरों को सीमित करना एक तरह का आधुनिक शोषण है, जिसे रोकना आवश्यक है।
सरकार और राजनीतिक दलों को यह समझने की जरूरत है कि समाज के सबसे कमजोर वर्गों को शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान करना न केवल एक नैतिक जिम्मेदारी है, बल्कि यह समाज के समग्र विकास के लिए भी आवश्यक है। जातीय राजनीति को छोड़कर, यदि सभी राजनीतिक दल वास्तविक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करें और वंचित वर्गों को उनके अधिकार दिलाने के लिए ठोस कदम उठाएं, तो एक सशक्त और समृद्ध भारत का सपना साकार हो सकता है।
वक्त की मांग है कि राजनीतिक दलों को अपनी प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा। जातीय राजनीति के बजाय, उन्हें वंचित वर्गों को सशक्त बनाने, उन्हें शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य की बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की दिशा में काम करना होगा। तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पाएंगे जो न केवल समावेशी हो, बल्कि सभी के लिए समान अवसर और न्याय सुनिश्चित करता हो।
जातीय और सांप्रदायिक एजेंडों से ऊपर उठकर, अगर हम सब मिलकर समाज के वंचित और कमजोर वर्गों की बेहतरी के लिए काम करें, तो निश्चित रूप से हम एक मजबूत और एकजुट भारत का निर्माण कर सकेंगे। यही वह भारत होगा, जहां हर व्यक्ति को उसके अधिकार और सम्मान मिल सकेगा।
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