2014 का चुनाव—सत्ता की जीत या समाज का विभाजन?
संपादकीय: 🖊️ दुर्गेश यादव!
2014 का चुनाव—सत्ता की जीत या समाज का विभाजन?
2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने एक बार फिर से सत्ता में वापसी की, लेकिन इस बार की जीत ने भारतीय लोकतंत्र और समाज के बुनियादी ताने-बाने पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं। यह चुनाव न केवल बीजेपी की रणनीतिक सफलता की कहानी कहता है, बल्कि एक ऐसे समाज की तस्वीर भी पेश करता है, जो जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते बिखर रहा है।
बीजेपी की इस जीत का एक महत्वपूर्ण पहलू था 45% समाज—जिसमें अल्पसंख्यक, यादव, और जाटव समुदाय शामिल हैं—को चुनावी समीकरण से बाहर रखना। पार्टी ने अपनी रणनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों को मुख्य धारा में लाने पर जोर दिया। उन्होंने इन समुदायों को यह विश्वास दिलाया कि उनकी उपेक्षा की गई है और अब वे इस उपेक्षा का बदला ले सकते हैं। इसके साथ ही, बीजेपी ने सुनियोजित तरीके से यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ एक विभाजनकारी विमर्श तैयार किया, जिसमें इन समुदायों के प्रति घृणा और असंतोष को बढ़ावा दिया गया।
यह चुनावी रणनीति सिर्फ वोटों को समेटने का प्रयास नहीं था, बल्कि यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच खाई को और चौड़ा करने का प्रयास था। बीजेपी ने विभिन्न सम्मेलनों और चुनावी रैलियों के माध्यम से गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों के भीतर इस बात का आक्रोश भर दिया कि वे लंबे समय से राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं। इस भावना को भुनाकर, पार्टी ने उन्हें एकजुट किया और यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ लामबंद किया।
इस विभाजनकारी राजनीति ने बीजेपी को चुनावी जीत दिलाई, लेकिन इसकी कीमत क्या थी? समाज के एक बड़े हिस्से को हाशिए पर धकेलने और उनके खिलाफ नफरत फैलाने की इस रणनीति ने सामाजिक समरसता को कमजोर कर दिया है। जब किसी भी राजनीतिक दल की सफलता समाज के एक हिस्से को भड़काने और दूसरे हिस्से को दरकिनार करने पर आधारित होती है, तो यह समाज में अस्थिरता और असमानता को जन्म देती है।
2014 के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय राजनीति अब जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर तेजी से बढ़ रही है। जहाँ एक ओर गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों को प्रमुखता दी गई, वहीं दूसरी ओर यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेल दिया गया। यह रणनीति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि यह समाज के लिए भी हानिकारक है।
यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या यह चुनावी जीत समाज के व्यापक हित में है? क्या हम सत्ता की लालसा में समाज के बुनियादी ताने-बाने को तोड़ रहे हैं? सत्ता हासिल करना किसी भी राजनीतिक दल का उद्देश्य हो सकता है, लेकिन उस जीत की कीमत समाज के ध्रुवीकरण के रूप में चुकाना एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
अगर राजनीति इसी राह पर चलती रही, तो भारतीय समाज में विभाजन और असमानता की खाई और गहरी होती जाएगी। यह स्थिति न केवल समाज की एकता को खतरे में डालती है, बल्कि देश के विकास और प्रगति को भी प्रभावित करती है।
इस समय, हमें एक ऐसी राजनीतिक दृष्टि की आवश्यकता है जो समाज को जोड़ने का काम करे, न कि उसे विभाजित करने का। एक समृद्ध और सशक्त समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि सभी जातियों, वर्गों, और समुदायों को समान अधिकार और सम्मान मिले। समाज के एक बड़े हिस्से को दरकिनार कर सत्ता में बने रहना लंबे समय में किसी के हित में नहीं है—न ही राजनीतिक दल के, न ही देश के।
अंततः, 2024 का चुनाव हमें एक महत्वपूर्ण सबक सिखाता है: सत्ता की भूख को संतुष्ट करने के लिए समाज को विभाजित करना एक खतरनाक खेल है, जिसमें अंततः हर कोई हारता है। हमें इस खेल से बाहर निकलकर एक नए रास्ते पर चलने की जरूरत है—एक ऐसा रास्ता, जहाँ समाज के सभी हिस्से एक साथ आकर देश के विकास और समृद्धि के लिए काम कर सकें। यही सच्ची लोकतांत्रिक जीत होगी!
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