रविवार, 9 फ़रवरी 2025
राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.!
राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.!
भारतीय राजनीति में सफलता एक लंबी यात्रा होती है, जिसमें वर्षों का संघर्ष, समाज के लिए किया गया काम और जनता के बीच बनाई गई विश्वसनीयता शामिल होती है। देश के कई बड़े नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल गए, आंदोलन किए, तब जाकर वे सत्ता के शिखर तक पहुँचे। लेकिन इसके विपरीत, अरविंद केजरीवाल को जिस तरह से राजनीति में ‘पैराशूट’ से उतारा गया और मीडिया द्वारा रातों-रात नेता बना दिया गया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक असाधारण और अप्राकृतिक घटना है।
संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता-
कांग्रेस और आजादी का आंदोलन:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, लेकिन इसे पहली बड़ी सफलता 1947 में मिली, जब भारत स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल यात्राएँ कीं, लाठियाँ खाईं, और अनगिनत कठिनाइयों का सामना किया। नेहरू 27 साल की उम्र में कांग्रेस में सक्रिय हुए थे और उन्हें प्रधानमंत्री बनने में 52 साल लगे।
कांशीराम और मायावती:
मान्यवर कांशीराम ने दलित राजनीति की नींव रखने के लिए पूरे भारत में संगठन खड़ा किया, जागरूकता अभियान चलाए और दशकों तक संघर्ष किया। मायावती 1984 में बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना के साथ राजनीति में सक्रिय हुईं और 1995 में पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। उन्हें सत्ता तक पहुँचने में 11 साल लगे, लेकिन यह संघर्ष और आंदोलन की राजनीति का नतीजा था।
मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव:
मुलायम सिंह यादव 1950 के दशक से राजनीति में सक्रिय थे, 1967 में पहली बार विधायक बने और 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उन्हें 22 साल तक जनता के बीच संघर्ष करना पड़ा। लालू प्रसाद यादव ने 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से राजनीति शुरू की, 1977 में सांसद बने, और 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्हें भी 20 साल तक संघर्ष करना पड़ा।
ममता बनर्जी:
ममता बनर्जी 1970 के दशक में कांग्रेस की युवा नेता के रूप में राजनीति में आईं। 1998 में तृणमूल कांग्रेस बनाई और 2011 में पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। उन्हें सत्ता तक पहुँचने में 30 साल लगे।
केजरीवाल की 'असाधारण' सफलता: क्या यह संघर्ष था?
अब इसी पैमाने पर अरविंद केजरीवाल को देखें—
- 2011 में अन्ना आंदोलन के सहारे सुर्खियों में आए।
- 2012 में आम आदमी पार्टी बनाई।
- 2013 में मात्र 1 साल बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए।
इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ कोई व्यक्ति बिना किसी लंबे संघर्ष के इतने बड़े राजनीतिक पद पर पहुँच गया हो। यह सफलता संघर्ष का परिणाम नहीं थी, बल्कि मीडिया द्वारा गढ़ी गई एक कृत्रिम लहर का नतीजा थी।
मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान का 'विशेष समर्थन'
- अन्ना आंदोलन को मीडिया ने अभूतपूर्व कवरेज दी, जो किसी और जनांदोलन को कभी नहीं मिली।
- केजरीवाल को हमेशा एक ‘क्रांतिकारी’ और ‘ईमानदार’ नेता के रूप में प्रचारित किया गया, जबकि दूसरे नेताओं को भ्रष्ट, जातिवादी और पुरानी राजनीति का प्रतीक बताया गया।
- 2013 में जब उन्होंने दिल्ली में सरकार बनाई, तो मीडिया ने इसे जनता की ऐतिहासिक जीत के रूप में पेश किया, जबकि यह एक **प्री-प्लान्ड मीडिया स्ट्रेटेजी** का हिस्सा था।
जाति और सत्ता का विशेषाधिकार
भारत में राजनीति हमेशा सामाजिक समीकरणों से प्रभावित रही है। जहाँ कांशीराम, मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव जैसे नेताओं को अपनी जातिगत पहचान के कारण मुख्यधारा की राजनीति में आने में दशकों लगे, वहीं केजरीवाल को बेहद सहज तरीके से सत्ता मिल गई।
केजरीवाल के बारे में यह तर्क दिया जाता है कि उन्हें मीडिया और शहरी मध्यम वर्ग का समर्थन इसलिए मिला क्योंकि वे एक सवर्ण पृष्ठभूमि से आते हैं। उनकी जाति और सामाजिक स्थिति ने उन्हें ‘स्वीकार्य’ नेता के रूप में प्रस्तुत करने में बड़ी भूमिका निभाई।
इसके विपरीत, बहुजन और पिछड़े वर्ग के नेताओं को ‘गंभीर राजनीति’ में शामिल होने के लिए कई सालों तक अपनी क्षमता साबित करनी पड़ी।
केजरीवाल का असली चेहरा: संघर्ष नहीं, सुविधाजनक राजनीति
आज जब केजरीवाल दिल्ली और पंजाब में सत्ता में हैं, तो उनके शासन की वास्तविकता सामने आ चुकी है।
- भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाली पार्टी खुद कई घोटालों में फँस चुकी है।
- ‘नई राजनीति’ का दावा करने वाली AAP भी वही जातीय और सांप्रदायिक राजनीति कर रही है, जिसे वह पहले कोसती थी।
- ‘सत्ता से मोह नहीं’ का नारा देने वाले केजरीवाल अब किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहना चाहते हैं।
भविष्य की राजनीति: जनता को समझने की जरूरत
भारतीय राजनीति में संघर्ष और विचारधारा की हमेशा से अहमियत रही है।
अगर किसी को बिना संघर्ष के सत्ता मिलती है, तो जनता को यह समझना होगा कि इसके पीछे कौन-सी ताकतें काम कर रही हैं।
अगर मीडिया किसी को ज़रूरत से ज़्यादा ‘संत’ साबित करने में लगा है, तो जनता को सतर्क हो जाना चाहिए।
-और अगर कोई नेता खुद को व्यवस्था-विरोधी बताकर सत्ता तक पहुँचता है, लेकिन सत्ता में आते ही वही पुरानी राजनीति करने लगता है, तो उसे पहचानना जरूरी है।
केजरीवाल की सफलता संघर्ष से अधिक एक 'प्रोजेक्ट' का हिस्सा थी। यह प्रोजेक्ट कैसे बना, किसने इसे आगे बढ़ाया, और इसका असली मकसद क्या था—यह अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है।
निष्कर्ष: संघर्ष का कोई विकल्प नहीं
भारतीय लोकतंत्र में असली नेता वह होता है जो जनता के बीच जाकर वर्षों तक संघर्ष करता है, न कि वह जिसे मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान रातों-रात गढ़ देते हैं।
केजरीवाल का उदाहरण हमें यह सिखाता है कि **कृत्रिम सफलता की उम्र ज्यादा नहीं होती।** बिना संघर्ष के मिली सत्ता सिर्फ एक भ्रम होती है, जो धीरे-धीरे टूट जाती है। जनता को अब यह समझना होगा कि राजनीति में असली बदलाव सिर्फ वही लोग ला सकते हैं, जिनका आधार जनता और संघर्ष हो, न कि मीडिया की चकाचौंध और प्रचार तंत्र।
(संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️)
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