विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश.!

विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश! भारत के लोकतंत्र में हर चुनाव जनता की आकांक्षाओं का आईना होता है। यह सिर्फ सीटों का गणित नहीं, बल्कि उस भविष्य की दिशा तय करता है जो करोड़ों लोगों की जिंदगी को प्रभावित करेगा। लेकिन जब सत्ता का खेल सिद्धांतों से बड़ा हो जाए, जब सहयोग की जगह स्वार्थ ले ले, और जब नेतृत्व दूरदृष्टि की बजाय अहंकार से संचालित हो, तो नतीजा वही होता है जो हाल ही के चुनावों में देखने को मिला—विपक्ष की करारी हार। इन चुनावों में अखिलेश यादव ने विपक्षी एकता की मिसाल पेश करते हुए हरियाणा में कांग्रेस को समर्थन दिया, क्योंकि उन्होंने देखा कि वहाँ भाजपा को हराने का सबसे मजबूत मौका कांग्रेस के पास है। दिल्ली में उन्होंने आम आदमी पार्टी (AAP) का साथ दिया, क्योंकि वहाँ AAP ही भाजपा के खिलाफ सबसे प्रभावी ताकत थी। उन्होंने यह सब बिना किसी निजी स्वार्थ के किया, सिर्फ इसलिए कि सांप्रदायिक ताकतों को रोका जा सके। लेकिन बदले में क्या मिला? AAP ने हरियाणा में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा, जिससे कांग्रेस की राह मुश्किल हो गई। कांग्रेस ने दिल्ली में AAP को कमजोर किया और उसे मात दे दी। यानि जहाँ अखिलेश यादव विपक्षी एकता का सपना देख रहे थे, वहीं कांग्रेस और AAP अपने-अपने स्वार्थों में उलझे रहे। उन्होंने भाजपा को हराने के बजाय एक-दूसरे को हराने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। और नतीजा? हरियाणा में कांग्रेस भी सत्ता से बाहर रह गई और दिल्ली में AAP का सफाया हो गया। विपक्ष का आत्मघाती रवैया: कौन किसे हराना चाहता था? अगर कांग्रेस और AAP ईमानदारी से एक-दूसरे का साथ देते, तो शायद नतीजे कुछ और होते। लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि इन दोनों दलों के लिए असली दुश्मन भाजपा नहीं, बल्कि एक-दूसरे का वजूद था। विपक्ष को मजबूत करने की बजाय, उन्होंने एक-दूसरे की जड़ें काटने का काम किया। **जिस आग में वे भाजपा को जलाना चाहते थे, उसी आग में खुद जल गए। इस चुनाव ने यह दिखा दिया कि **सिर्फ गठबंधन बना लेने से कुछ नहीं होता, उसे निभाने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए।लेकिन जब पार्टी हित, देश हित से बड़ा हो जाए, जब अहंकार सहयोग से ऊपर आ जाए, तो विपक्षी एकता सिर्फ एक छलावा बनकर रह जाती है। अखिलेश यादव: त्याग और दूरदृष्टि बनाम अवसरवाद! इन चुनावों में अखिलेश यादव ने दिखाया कि राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं होती, यह नैतिकता और निष्ठा की भी परीक्षा होती है। उन्होंने न सिर्फ अपनी पार्टी, बल्कि पूरे विपक्ष की मजबूती के लिए कदम उठाए। लेकिन उनकी यह कोशिश कांग्रेस और AAP की आपसी लड़ाई के कारण विफल हो गई। अब सवाल यह है कि क्या विपक्ष को अब भी यह समझ आएगा कि अगर वे आपस में लड़ते रहेंगे, तो भाजपा को रोकना असंभव हो जाएगा? जनता को समझना होगा: कौन सच में भाजपा से लड़ रहा था? जनता को यह देखना होगा कि विपक्ष में कौन सत्ता के लिए लड़ रहा था और कौन सिद्धांतों के लिए। - क्या कांग्रेस और AAP ने भाजपा को हराने की ईमानदार कोशिश की? - या वे सिर्फ अपनी-अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने में लगे रहे? - अगर वे साथ आते, तो क्या भाजपा को रोका नहीं जा सकता था? यह लड़ाई सिर्फ पार्टियों की नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र की है। अगर विपक्ष अब भी नहीं समझा, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता भी उनकी स्वार्थी राजनीति को नकार देगी। और तब, उनकी हार सिर्फ एक चुनावी पराजय नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक भूल बन जाएगी। भविष्य का सवाल: क्या विपक्ष अपनी गलतियों से सीखेगा? अगर विपक्ष सच में भाजपा को रोकना चाहता है, तो उसे अखिलेश यादव जैसी दूरदृष्टि और समर्पण से सीखना होगा। उसे आपसी लड़ाई छोड़नी होगी, नहीं तो जनता भी एक दिन उन्हें छोड़ देगी। राजनीति में हार-जीत तो होती रहती है, लेकिन जो दल अपने स्वार्थ की आग में जनता की उम्मीदों को जलाने लगते हैं, वे कभी खड़े नहीं हो पाते। विपक्ष को यह सबक जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही देश के लिए अच्छा होगा। (संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️)

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