गुरुवार, 29 अगस्त 2024
2014 का चुनाव—सत्ता की जीत या समाज का विभाजन?
संपादकीय: 🖊️ दुर्गेश यादव!
2014 का चुनाव—सत्ता की जीत या समाज का विभाजन?
2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने एक बार फिर से सत्ता में वापसी की, लेकिन इस बार की जीत ने भारतीय लोकतंत्र और समाज के बुनियादी ताने-बाने पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं। यह चुनाव न केवल बीजेपी की रणनीतिक सफलता की कहानी कहता है, बल्कि एक ऐसे समाज की तस्वीर भी पेश करता है, जो जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के चलते बिखर रहा है।
बीजेपी की इस जीत का एक महत्वपूर्ण पहलू था 45% समाज—जिसमें अल्पसंख्यक, यादव, और जाटव समुदाय शामिल हैं—को चुनावी समीकरण से बाहर रखना। पार्टी ने अपनी रणनीति में गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों को मुख्य धारा में लाने पर जोर दिया। उन्होंने इन समुदायों को यह विश्वास दिलाया कि उनकी उपेक्षा की गई है और अब वे इस उपेक्षा का बदला ले सकते हैं। इसके साथ ही, बीजेपी ने सुनियोजित तरीके से यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ एक विभाजनकारी विमर्श तैयार किया, जिसमें इन समुदायों के प्रति घृणा और असंतोष को बढ़ावा दिया गया।
यह चुनावी रणनीति सिर्फ वोटों को समेटने का प्रयास नहीं था, बल्कि यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच खाई को और चौड़ा करने का प्रयास था। बीजेपी ने विभिन्न सम्मेलनों और चुनावी रैलियों के माध्यम से गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों के भीतर इस बात का आक्रोश भर दिया कि वे लंबे समय से राजनीतिक रूप से हाशिए पर हैं। इस भावना को भुनाकर, पार्टी ने उन्हें एकजुट किया और यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ लामबंद किया।
इस विभाजनकारी राजनीति ने बीजेपी को चुनावी जीत दिलाई, लेकिन इसकी कीमत क्या थी? समाज के एक बड़े हिस्से को हाशिए पर धकेलने और उनके खिलाफ नफरत फैलाने की इस रणनीति ने सामाजिक समरसता को कमजोर कर दिया है। जब किसी भी राजनीतिक दल की सफलता समाज के एक हिस्से को भड़काने और दूसरे हिस्से को दरकिनार करने पर आधारित होती है, तो यह समाज में अस्थिरता और असमानता को जन्म देती है।
2014 के चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय राजनीति अब जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण की ओर तेजी से बढ़ रही है। जहाँ एक ओर गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित समुदायों को प्रमुखता दी गई, वहीं दूसरी ओर यादव, जाटव, और अल्पसंख्यक समुदायों को राजनीतिक रूप से हाशिए पर धकेल दिया गया। यह रणनीति न केवल लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि यह समाज के लिए भी हानिकारक है।
यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या यह चुनावी जीत समाज के व्यापक हित में है? क्या हम सत्ता की लालसा में समाज के बुनियादी ताने-बाने को तोड़ रहे हैं? सत्ता हासिल करना किसी भी राजनीतिक दल का उद्देश्य हो सकता है, लेकिन उस जीत की कीमत समाज के ध्रुवीकरण के रूप में चुकाना एक खतरनाक प्रवृत्ति है।
अगर राजनीति इसी राह पर चलती रही, तो भारतीय समाज में विभाजन और असमानता की खाई और गहरी होती जाएगी। यह स्थिति न केवल समाज की एकता को खतरे में डालती है, बल्कि देश के विकास और प्रगति को भी प्रभावित करती है।
इस समय, हमें एक ऐसी राजनीतिक दृष्टि की आवश्यकता है जो समाज को जोड़ने का काम करे, न कि उसे विभाजित करने का। एक समृद्ध और सशक्त समाज के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि सभी जातियों, वर्गों, और समुदायों को समान अधिकार और सम्मान मिले। समाज के एक बड़े हिस्से को दरकिनार कर सत्ता में बने रहना लंबे समय में किसी के हित में नहीं है—न ही राजनीतिक दल के, न ही देश के।
अंततः, 2024 का चुनाव हमें एक महत्वपूर्ण सबक सिखाता है: सत्ता की भूख को संतुष्ट करने के लिए समाज को विभाजित करना एक खतरनाक खेल है, जिसमें अंततः हर कोई हारता है। हमें इस खेल से बाहर निकलकर एक नए रास्ते पर चलने की जरूरत है—एक ऐसा रास्ता, जहाँ समाज के सभी हिस्से एक साथ आकर देश के विकास और समृद्धि के लिए काम कर सकें। यही सच्ची लोकतांत्रिक जीत होगी!
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"भारतीय समाज: बिखराव की ओर और आंतरिक युद्ध के साए में"
भारतीय समाज, जो कभी विविधता में एकता का आदर्श था, आज एक गंभीर बिखराव और आंतरिक संघर्ष से गुजर रहा है। इस बिखराव का सबसे कड़वा प्रतिबिंब हमें सोशल मीडिया पर दिखता है, जहां विचारों की खुली अदला-बदली की जगह, जातीय और राजनीतिक संकीर्णता ने ले ली है। विशेष रूप से जब कोई भयावह घटना, जैसे कि बलात्कार, सामने आती है, तो समाज का यह विभाजन और भी स्पष्ट हो जाता है।
ऐसी घटनाओं पर सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया देने वाले लोग, पहले अपराध की गंभीरता पर विचार नहीं करते, बल्कि यह देखते हैं कि पीड़ित और अपराधी किस जाति, धर्म या वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। इसके बाद, यह देखा जाता है कि घटना किस राज्य में हुई और वहां किस राजनीतिक दल की सरकार है। इस जातीय और राजनीतिक चश्मे से देखी गई घटनाओं में संवेदनाएं कहीं खो जाती हैं। जो सवाल उठाए जाते हैं, वे न्याय और करुणा से ज्यादा, राजनीतिक और जातीय लाभ-हानि पर केंद्रित होते हैं।
समाज में इस विभाजन को बढ़ावा देने में हमारे राजनीतिक नेता भी पीछे नहीं हैं। वे अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए इस बिखराव को और गहरा करते हैं। आईटी सेल के माध्यम से वीडियो और खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है, जिससे आम जनता के मन में भ्रम और गुस्सा पैदा किया जा सके। यह रणनीति समाज को बांटने और आपसी विश्वास को कमजोर करने का काम करती है, जिससे सामाजिक ताने-बाने में दरारें और गहरी हो जाती हैं।
सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस विभाजनकारी माहौल में इंसानियत और संवेदनशीलता का स्थान जातीयता और राजनीति ने ले लिया है। अब घटनाओं पर लोगों की प्रतिक्रियाएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि उनका जातीय या राजनीतिक समूह इससे कैसे प्रभावित होगा। पीड़ित की पीड़ा और न्याय की पुकार कहीं दबकर रह जाती है, और समाज में एक ठंडी उदासीनता पसर जाती है।
अगर हम इस प्रवृत्ति को समय रहते नहीं रोकते, तो यह बिखराव और आंतरिक युद्ध हमारे समाज को अंदर से कमजोर कर देगा। हमें यह समझना होगा कि किसी भी घटना को उसकी सच्चाई और मानवीयता के आधार पर देखना चाहिए, न कि जातीय और राजनीतिक चश्मे से। केवल तभी हम एक सच्चे, संवेदनशील, और एकजुट समाज का निर्माण कर सकते हैं, जहाँ हर व्यक्ति की पीड़ा को समझा और उसका समाधान खोजा जा सके।
यह वक्त है, जब हमें अपनी विचारधाराओं और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर, इंसानियत और संवेदनशीलता को प्राथमिकता देनी होगी। यही एक रास्ता है, जो हमें इस बिखरते हुए समाज को फिर से एकजुट करने और एक मजबूत, न्यायपूर्ण भारत का निर्माण करने में मदद करेगा।
🖋️ दुर्गेश यादव!
सोमवार, 26 अगस्त 2024
लैटरल एंट्री पारदर्शिता और आरक्षण की चुनौती!
लैटरल एंट्री पर विवाद: पारदर्शिता और आरक्षण की चुनौती
केंद्रीय लोकसेवा आयोग (UPSC) द्वारा हाल ही में जारी किए गए लैटरल एंट्री के तहत 45 पदों की नियुक्तियों के विज्ञापन ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। कांग्रेस, RJD, समाजवादी पार्टी और BSP जैसे प्रमुख विपक्षी दलों ने इस विज्ञापन पर तीखा विरोध जताया है, खासकर आरक्षण की कमी को लेकर.
लैटरल एंट्री की पृष्ठभूमि
लैटरल एंट्री की नीति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली NDA सरकार के पहले कार्यकाल में शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य प्रशासनिक सेवाओं में विशेषज्ञता और नई प्रतिभाओं को शामिल करना था। इस नीति के तहत पहले भी कई दौर की नियुक्तियां हो चुकी हैं, लेकिन इस बार 45 पदों की संख्या ने विवाद को और बढ़ा दिया है.
विरोधी दलों की आपत्ति
विपक्षी दलों का मुख्य आरोप है कि इन नियुक्तियों में SC/ST और OBC समूहों के लिए आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे "सुनियोजित साजिश" करार दिया है, जिससे आरक्षित वर्गों को बाहर रखा जा सके. उनका कहना है कि यह संविधान के आरक्षण प्रावधानों का उल्लंघन है और सरकार जानबूझकर आरक्षण को दरकिनार कर रही है.
पारदर्शिता और निष्पक्षता की मांग
विपक्षी दलों का कहना है कि लैटरल एंट्री प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाना चाहिए। उनका मानना है कि इस प्रक्रिया में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके.
निष्कर्ष
लैटरल एंट्री की नीति का उद्देश्य प्रशासनिक सेवाओं में विशेषज्ञता और नई प्रतिभाओं को शामिल करना है, लेकिन इसे पारदर्शी और निष्पक्ष बनाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। आरक्षण के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए इस नीति को लागू करना चाहिए ताकि सभी वर्गों को समान अवसर मिल सके और विवादों से बचा जा सके।
क्या आपको लगता है कि लैटरल एंट्री की नीति में सुधार की जरूरत है? आपकी राय क्या है
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