बुधवार, 17 सितंबर 2025
बीजेपी का 75 साल का जुमला: कथनी और करनी में फर्क
भारत में राजनीति में नियम-कानून हर पार्टी के लिए मायने रखते हैं… या कम से कम होना चाहिए। लेकिन जब बात आती है बीजेपी और उसके नेताओं की, तो “नियम” और “व्यक्तिगत सुविधाएँ” अक्सर अलग-अलग रास्ते पर चलते दिखते हैं। खासकर जब बात आती है 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट की।
बीजेपी हमेशा यह दावा करती रही है कि उसके नेता 75 साल की उम्र के बाद राजनीति से संन्यास ले लेंगे। यह नियम पार्टी में युवा नेतृत्व को बढ़ावा देने और वरिष्ठ नेताओं को समय पर संन्यास लेने के लिए लाया गया था। लगता तो सब सही और नेक नियत वाला कदम है। लेकिन जैसे ही आप गहराई में जाएँ, पता चलता है कि यह केवल कथनी थी, करनी नहीं।
कथनी और करनी का अंतर -
आइए थोड़ा इतिहास याद करें। लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह और कलराज मिश्र—ये सभी नाम बीजेपी के बड़े नेताओं के हैं। इन सभी को 75 साल की उम्र में या उसके आसपास सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिया गया। पार्टी ने इसे नियम और अनुशासन का हिस्सा बताया।
लेकिन अब जब वही उम्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और RSS प्रमुख मोहन भागवत तक पहुँच गई है, तो वही नियम अचानक गायब सा हो गया है। लगता है कि नियम केवल तब लागू होता है जब बात सामान्य नेताओं की हो, लेकिन बड़े नेताओं और खुद पीएम की सुविधा के लिए इसे मोड़ा जा सकता है।
यहां साफ दिखता है कि बीजेपी में नियम केवल छवि बनाने के लिए थे। जनता को यह दिखाने के लिए कि पार्टी “नियमों की पाबंद” है। और जब वास्तविक सत्ता के मामले आते हैं, तो वही नियम झुक जाता है।
मोहन भागवत का यूटर्न-
मोहन भागवत ने पहले कहा था कि नेताओं को 75 साल की उम्र में संन्यास ले लेना चाहिए। यह बयान सुनकर विपक्ष और जनता दोनों की उम्मीद जगी कि अब RSS और बीजेपी में नियम सबके लिए बराबर लागू होगा।
लेकिन कुछ ही समय बाद, भागवत ने अपने बयान से पीछे हटते हुए कहा कि उन्होंने कभी किसी पर 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट का दबाव नहीं डाला। और इस नियम को संविधानिक पदों पर लागू नहीं माना।
सवाल उठता है—अगर यह नियम सामान्य नेताओं पर लागू हो सकता है, तो भागवत और मोदी पर क्यों नहीं? क्या उन्हें “विशेष सुविधा” दी जा रही है?
विपक्षी सवाल और मजाक-
इस मुद्दे पर विपक्ष ने जमकर सवाल उठाए। अरविंद केजरीवाल ने मोहन भागवत को पत्र लिखा और पूछा कि अगर नियम आडवाणी और जोशी पर लागू हो सकता है, तो मोदी पर क्यों नहीं।
कांग्रेस नेताओं ने भी यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री मोदी 75 साल के हो चुके हैं, तो क्या अब उन्हें रिटायर हो जाना चाहिए? या फिर नियम केवल आम नेताओं के लिए है, बड़े नेताओं के लिए नहीं?
सामान्य जनता के लिए यह सवाल ताज्जुब और हंसी दोनों लाता है। एक तरफ पार्टी नियम की बातें करती है, दूसरी तरफ वही नियम सिर्फ दिखावा बनकर रह जाता है।
बीजेपी के नियम का सच-
बीजेपी और RSS की स्थिति साफ नहीं है। नियम है या नहीं, यह जनता के सामने अस्पष्ट है। और इस अस्पष्टता का फायदा सिर्फ बड़े नेताओं को मिलता है।
असल में, बीजेपी में नियम केवल एक PR स्टंट की तरह है—जनता को दिखाने के लिए कि पार्टी अनुशासन में है। और जब बात शक्ति के वास्तविक केंद्र की आती है, तो नियम अचानक गायब हो जाता है।
यानी, कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। आम जनता और छोटे नेता नियम के अधीन रहते हैं, बड़े नेता अपनी सुविधा अनुसार खुद को अलग रखते हैं।
जनता के लिए संदेश -
इस पूरे मसले का सबसे बड़ा असर जनता पर पड़ता है। जब नियम सिर्फ कुछ लोगों पर लागू होते हैं और शक्तिशाली नेताओं पर नहीं, तो यह लोकतंत्र की समानता और निष्पक्षता पर सवाल उठाता है।
75 साल का नियम अगर सच में लागू होता, तो मोदी और भागवत दोनों को राजनीति से पीछे हट जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे जनता को यह संदेश जाता है कि बीजेपी में नियम केवल दिखावा है।
बीजेपी का 75 साल का नियम एक जुमला है। कथनी और करनी में फर्क साफ है।
सामान्य नेता—नियम के अनुसार रिटायर।
बड़े नेता—नियम उनके लिए लागू नहीं।
जब तक पार्टी इस दोहरे मानदंड को स्पष्ट नहीं करती, जनता के मन में सवाल और संदेह बने रहेंगे। यह सिर्फ नेतृत्व के प्रति जनता का विश्वास ही नहीं, बल्कि पार्टी की छवि पर भी बड़ा असर डालता है।
अंत में कह सकता हूँ—बीजेपी का 75 साल का नियम केवल PR और दिखावे का खेल है। कथनी और करनी में यह फर्क साफ है। जनता अब इसे देख रही है, समझ रही है, और भविष्य में इसका हिसाब भी मांगने वाली है।
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लेखक: दुर्गेश यादव!
(राजनीति और सामाजिक विश्लेषक)
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