बुधवार, 3 सितंबर 2025
लालू प्रसाद यादव : संघर्षों से तपकर निकला भारतीय राजनीति का बब्बर शेर
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अनेक ऐसे नेता हुए हैं, जिनकी पहचान केवल राजनीतिक पदों से नहीं बल्कि जनता के दिलों में दर्ज होती है। ऐसे ही नेताओं की सूची में एक अनोखा नाम है लालू प्रसाद यादव।
वे केवल एक नेता नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में एक ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं, जिसने ग़रीबों, पिछड़ों और वंचित तबके को केंद्र में लाकर खड़ा किया।
लालू प्रसाद को अपदस्थ करने के लिए सत्ता के गलियारों में अनगिनत षड्यंत्र रचे गए। कभी 19 केंद्रीय मंत्री बनाकर उनका किला गिराने की कोशिश हुई, कभी सिनेमा के पर्दे पर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया, और अंततः संसद में विशेष अध्यादेश तक लाया गया।
लेकिन इसके बावजूद वे अपने संघर्ष, जुझारूपन और जनाधार से भारतीय राजनीति में एक बब्बर शेर की तरह खड़े रहे।
सत्ता से हटाने का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट
1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी, तब बिहार से रिकॉर्ड 19 केंद्रीय मंत्री बनाए गए। भाजपा और उसके सहयोगियों ने खुलकर कहा कि यह कदम केवल लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक ताक़त को तोड़ने के लिए उठाया गया है।
उस दौर में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, जॉर्ज फ़र्नांडिस और कई दिग्गजों को केंद्र की राजनीति में जगह दी गई। लेकिन छह साल तक सत्ता में रहने के बाद भी लालू प्रसाद को हाशिये पर नहीं धकेला जा सका।
2004 : “इंडिया शाइनिंग” की हार और लालू की जीत
2004 के लोकसभा चुनाव भाजपा ने “इंडिया शाइनिंग” अभियान के साथ लड़ा। उस समय मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान को पूरा भरोसा था कि भाजपा फिर से सत्ता में आएगी।
लेकिन बिहार की धरती पर लालू प्रसाद यादव ने चमत्कार कर दिया। उनकी पार्टी राजद ने 24 सीटें जीतकर एनडीए की रणनीति ध्वस्त कर दी।
यूपीए सरकार बनी और लालू प्रसाद रेल मंत्री बने। यही वह दौर था जब उन्होंने भारतीय रेलवे को घाटे से उबारकर लाभ में लाकर पूरी दुनिया को चौंका दिया। हार्वर्ड से लेकर वॉर्टन तक के बिजनेस स्कूलों ने उनके “रेलवे मॉडल” पर केस स्टडी तैयार की।
सेना बुलाने तक की नौबत
भारतीय राजनीति का यह भी एक अनोखा अध्याय है कि लालू प्रसाद यादव को गिरफ़्तार करने के लिए सेना बुलाने तक की तैयारी की गई। ऐसा किसी और नेता के साथ कभी नहीं हुआ।
यह घटना बताती है कि उनकी राजनीतिक शक्ति किस स्तर तक थी और किस हद तक वे सत्ता प्रतिष्ठान के लिए चुनौती बन चुके थे।
फ़िल्मों से राजनीति तक की तिकड़म
सिर्फ़ राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लालू यादव को घेरने की कोशिश की गई। बिहार के फ़िल्म निर्माता प्रकाश झा से गंगाजल और अपहरण जैसी फ़िल्में बनवाई गईं। इन फ़िल्मों को जनता ने लालू प्रसाद के राजनीतिक जीवन से जोड़कर देखा।
बाद में यही प्रकाश झा नीतीश कुमार के टिकट पर लोकसभा चुनाव में उतरे। यह महज़ संयोग नहीं था, बल्कि राजनीति और सिनेमा के गठजोड़ से किसी नेता को बदनाम करने का सुनियोजित प्रयोग था।
विशेष अध्यादेश और राजनीतिक शिकार
लालू प्रसाद यादव पहले ऐसे नेता बने जिनके लिए संसद में विशेष अध्यादेश लाया गया। इस क़ानून के तहत उन्हें चुनाव लड़ने और सार्वजनिक जीवन से वंचित कर दिया गया।
विडंबना यह है कि आज उसी देश की राजनीति में बलात्कार जैसे अपराधों में सजायाफ्ता लोग सत्ता का आनंद लेते हैं। लेकिन जिनके लिए “विशेष कानून” बनाया गया, वे लालू प्रसाद यादव ही थे।
ग़रीबों का नेता और जनता का भरोसा
लालू प्रसाद यादव की असली ताक़त सत्ता नहीं बल्कि जनता थी। उनका अंदाज़, उनकी भाषा और उनका बोलने का तरीका सीधा आम आदमी से जुड़ता था।
गाँव का किसान उन्हें अपना मानता था।
दलित-पिछड़े उनके भाषणों में अपना भविष्य देखते थे।
मुसलमानों ने उन्हें अपनी सुरक्षा का प्रतीक माना।
यही कारण था कि विपक्षी उन्हें चाहे जितना “गँवार” कहें, लेकिन ग़रीबों की भीड़ उन्हें “माई का लाल” कहती रही।
स्वास्थ्य चुनौतियों के बीच अडिग
लालू प्रसाद यादव का जीवन व्यक्तिगत संघर्षों से भी भरा रहा है।
उन्होंने ओपन हार्ट सर्जरी करवाई।
किडनी ट्रांसप्लांट से गुज़रे।
एक दर्जन से अधिक गंभीर बीमारियों से लड़ रहे हैं।
इसके बावजूद वे 75 वर्ष की उम्र में भी पूरी ऊर्जा और जज़्बे के साथ राजनीतिक मैदान में सक्रिय हैं। यही उन्हें भारतीय राजनीति का योद्धा बनाता है।
भाषण और तर्क की अद्भुत क्षमता
लालू प्रसाद यादव को भीड़ को साधने की कला बख़ूबी आती थी। वे कठिन से कठिन मुद्दे को सरल भाषा में जनता तक पहुँचाते थे। उनके भाषणों में हँसी-ठिठोली भी होती थी और गंभीर राजनीतिक तर्क भी।
वे विरोधियों पर व्यंग्य करते हुए भी उन्हें व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते थे। यही कारण है कि उनका अंदाज़ जनता को आकर्षित करता और विरोधियों को असहज बना देता।
अगर वे भी “धूर्त राजनीति” करते तो…
लालू प्रसाद यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगे, लेकिन उन्होंने कभी राजनीति को प्रतिशोध और षड्यंत्र का साधन नहीं बनाया।
यदि वे अपने विरोधियों की तरह ईर्ष्या और धूर्तता से राजनीति करते, तो आज कई बड़े नेताओं का चेहरा उजागर हो चुका होता। उनकी यह खासियत उन्हें भीड़ से अलग करती है।
निष्कर्ष
लालू प्रसाद यादव भारतीय राजनीति का वह नाम हैं जिन्हें मिटाने की तमाम कोशिशें हुईं, लेकिन हर बार वे और मज़बूत होकर उभरे। सत्ता के षड्यंत्र, मीडिया की नकारात्मक छवियाँ, विशेष अध्यादेश और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ—इन सबके बावजूद वे आज भी ग़रीबों और पिछड़ों की उम्मीद बने हुए हैं।
वे सचमुच भारतीय राजनीति के बब्बर शेर हैं, जिनकी दहाड़ आज भी समाजवाद के गलियारों में गूँजती है।
साहब, आपके जज़्बे को सलाम। समाजवाद ज़िंदाबाद।
✍️ लेखक :दुर्गेश यादव!
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