रविवार, 31 अगस्त 2025
चीन पर बढ़ती निर्भरता और भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल ही में यह चिंता जताई कि भारत लगातार चीन के उत्पादों पर अधिक निर्भर होता जा रहा है। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर यही रफ्तार जारी रही, तो इसका असर न केवल भारत के औद्योगिक ढांचे पर पड़ेगा बल्कि देश की व्यापारिक स्थिति भी कमजोर हो जाएगी। अखिलेश यादव का तर्क है कि चीन पहले भारतीय बाज़ारों को सस्ते और बड़े पैमाने पर उपलब्ध अपने उत्पादों से भर देता है, जिससे घरेलू उद्योग धीरे-धीरे कमजोर हो जाते हैं। बाद में जब भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धा खो बैठती हैं, तब चीन अपनी मर्जी से कीमतें तय कर बाजार पर एक तरह से नियंत्रण कर लेता है।
यह चिंता सिर्फ राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था के सामने खड़े एक गहरे प्रश्न की ओर संकेत करती है। आज के दौर में "आत्मनिर्भर भारत" का नारा दिया जा रहा है, "मेक इन इंडिया" को बढ़ावा दिया जा रहा है और स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहित करने की नीतियां बनाई जा रही हैं। लेकिन जमीन पर सच्चाई कुछ और है। भारत का आयात-निर्यात संतुलन इस बात को साफ दिखाता है कि हम चीन पर भारी मात्रा में निर्भर बने हुए हैं।
भारत-चीन व्यापारिक तस्वीर
भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों को देखें तो पिछले एक दशक में इसमें लगातार बढ़ोतरी हुई है। भारत चीन से इलेक्ट्रॉनिक सामान, मोबाइल फोन, मशीनरी, खिलौने, कपड़े, औद्योगिक उपकरण और यहां तक कि त्योहारों में इस्तेमाल होने वाली सजावटी वस्तुएं तक आयात करता है।
2024 तक के आंकड़े बताते हैं कि भारत का चीन के साथ व्यापारिक घाटा 100 अरब डॉलर से अधिक हो चुका है। यानी भारत चीन से जितना माल खरीदता है, उसके मुकाबले चीन भारत से बहुत कम माल खरीदता है। यह असंतुलन लंबे समय में भारतीय उद्योग के लिए गंभीर खतरा है।
घरेलू उद्योग पर असर
चीन की ताकत सस्ते उत्पादन और बड़े पैमाने पर निर्माण क्षमता में है। वहां की कंपनियां कम लागत पर बड़े पैमाने पर उत्पाद तैयार करती हैं। इसका असर भारतीय छोटे और मध्यम उद्योगों (MSME सेक्टर) पर सीधा पड़ता है।
इलेक्ट्रॉनिक्स और मोबाइल सेक्टर : भारतीय कंपनियां यहां टिक ही नहीं पातीं।
त्योहार और सजावटी सामान : दिवाली की लाइटें, होली के रंग, राखियां और यहां तक कि गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां तक चीन से आकर बाजार में छा जाती हैं।
मशीनरी और औद्योगिक उपकरण : छोटे उद्योगों को भी चीनी उपकरणों पर निर्भर होना पड़ता है।
इस निर्भरता से स्थानीय उत्पादन क्षमता कमजोर होती है। उद्योगपति और कारीगर धीरे-धीरे बाजार से बाहर होने लगते हैं, जिससे रोजगार पर भी सीधा असर पड़ता है।
रणनीतिक खतरे
यह मुद्दा सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक भी है। चीन भारत का पड़ोसी और कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी देश है। सीमा विवाद से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक, दोनों देशों के बीच तनाव की स्थिति कई बार सामने आती रही है। ऐसे में अगर भारत की अर्थव्यवस्था चीन के सामानों पर ज्यादा निर्भर होती चली जाए तो यह भविष्य में दबाव का कारण बन सकता है।
अखिलेश यादव की चिंता यहीं पर अधिक प्रासंगिक हो जाती है। अगर चीन किसी दौर में कीमतें बढ़ा दे या किसी खास उत्पाद की सप्लाई रोक दे, तो भारत के उद्योग और बाजार हिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के दौरान जब चीन से दवाइयों और मेडिकल उपकरणों की सप्लाई प्रभावित हुई, तब भारत को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
क्या है समाधान?
घरेलू उद्योगों को मजबूत करना
छोटे और मध्यम उद्योगों को आसान ऋण, तकनीकी सहायता और आधुनिक मशीनों तक पहुंच दिलाना जरूरी है।
"मेक इन इंडिया" अभियान को सिर्फ नारेबाजी से आगे बढ़ाकर ज़मीनी स्तर पर लागू करना होगा।
टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भरता
इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर और मोबाइल निर्माण जैसे क्षेत्रों में भारत को अपनी क्षमता विकसित करनी होगी।
सरकार ने सेमीकंडक्टर निर्माण के लिए योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन उन्हें तेज़ी और पारदर्शिता के साथ लागू करना जरूरी है।
स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा
त्योहारों और दैनिक उपयोग की वस्तुओं में "स्वदेशी" उत्पादों को प्राथमिकता देनी होगी।
इसके लिए उपभोक्ताओं की सोच भी बदलनी होगी। जब तक लोग सस्ते चीनी सामान को प्राथमिकता देंगे, तब तक स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देना मुश्किल होगा।
निर्यात बढ़ाना
भारत को अपने निर्यात के क्षेत्र बढ़ाने होंगे। टेक्सटाइल, फार्मा, आईटी और कृषि उत्पादों में भारत की बड़ी क्षमता है।
निर्यात बढ़ाकर ही व्यापार घाटे को संतुलित किया जा सकता है।
राजनीति और अर्थशास्त्र का संगम
अखिलेश यादव का बयान केवल राजनीतिक विरोध के लिए नहीं माना जाना चाहिए। यह एक गंभीर आर्थिक चेतावनी है। आज भले ही भारतीय बाजार सस्ते चीनी सामान से भरे हों और उपभोक्ता इसे "किफायती विकल्प" मानते हों, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा के खिलाफ है।
राजनीतिक दलों को भी यह समझना होगा कि विदेशी सामानों के खिलाफ केवल बयानबाजी या बहिष्कार का नारा पर्याप्त नहीं है। इसके लिए ठोस नीतियां, अनुसंधान में निवेश, नवाचार को प्रोत्साहन और स्थानीय उद्योगों को सुरक्षा कवच देना आवश्यक है।
निष्कर्ष
भारत का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कैसे घटाता है और किस हद तक अपने उद्योगों को प्रतिस्पर्धी बनाता है। अखिलेश यादव की यह चिंता समयानुकूल है और इसे केवल विपक्ष का बयान कहकर नज़रअंदाज़ करना गलत होगा।
अगर भारत वास्तव में आत्मनिर्भर बनना चाहता है, तो उसे घरेलू उत्पादन, तकनीकी विकास और स्थानीय उद्यमिता को प्राथमिकता देनी होगी। अन्यथा चीन का वह मॉडल हावी रहेगा, जिसमें पहले वह बाजार पर कब्जा करता है और बाद में अपनी शर्तों पर सौदे करवाता है।
आज जरूरत इस बात की है कि सरकार, उद्योग और उपभोक्ता – तीनों मिलकर स्थानीय उत्पादों और उद्योगों को मजबूत करें। तभी भारत आर्थिक रूप से सुरक्षित और स्वतंत्र बन सकेगा।
✍️लेखक : दुर्गेश यादव!
एससीओ शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग मुलाकात: आतंकवाद और कनेक्टिविटी पर वैश्विक दक्षिण के लिए नए संकेत
✍️ लेखक: दुर्गेश यादव!
तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन इस बार विशेष रूप से चर्चा में रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात ने न केवल द्विपक्षीय संबंधों पर, बल्कि पूरे यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति पर गहरा असर डाला। पूर्व विदेश सचिव शशांक ने इस मुलाकात को लेकर कहा, “एससीओ, वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्रों के प्रमुख सदस्यों का दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है, जो महत्वपूर्ण है। हालांकि प्राथमिकताएं होनी चाहिए – पहली, आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी, भविष्य के लिए बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी का निर्माण करना।”* उनकी यह टिप्पणी न केवल भारत-चीन संबंधों को समझने का आधार देती है, बल्कि आने वाले वर्षों की वैश्विक कूटनीति को भी दिशा दिखाती है।
एससीओ की बढ़ती अहमियत
शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना 2001 में हुई थी और इसका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत और पाकिस्तान 2017 में इसके पूर्ण सदस्य बने। आज एससीओ एशिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय मंचों में गिना जाता है, जहां रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, मध्य एशियाई देश और अब ईरान जैसे देश भी शामिल हैं।
इस संगठन की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इसमें एक साथ वैश्विक दक्षिण (Global South), यूरेशियन क्षेत्र और हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े देश शामिल हैं। यही कारण है कि एससीओ केवल एक क्षेत्रीय मंच नहीं, बल्कि एक वैश्विक कूटनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहा है।
मोदी-जिनपिंग मुलाकात का महत्व
भारत और चीन के बीच संबंध पिछले कुछ वर्षों में तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर सीमा विवाद और गलवान की घटनाओं के बाद। ऐसे में तियानजिन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात को एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है।
इस बैठक का सबसे बड़ा संदेश यह है कि दोनों देश अपने मतभेदों के बावजूद संवाद की राह बनाए रखना चाहते हैं। यह मुलाकात ऐसे समय पर हुई है जब दुनिया ऊर्जा संकट, महंगाई, यूक्रेन युद्ध और वैश्विक दक्षिण की चुनौतियों से जूझ रही है। भारत और चीन यदि सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो यह पूरे एससीओ को नई ऊर्जा दे सकता है।
आतंकवाद पर लगाम: साझा प्राथमिकता
शशांक ने सही कहा कि एससीओ की पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना होनी चाहिए।
1.क्षेत्रीय स्थिरता के लिए आवश्यक– मध्य एशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां अभी भी बड़ी चुनौती हैं। यदि इन पर नियंत्रण नहीं होता तो व्यापार और कनेक्टिविटी की कोई भी योजना असफल हो जाएगी।
2.भारत की सुरक्षा चिंता – भारत लंबे समय से सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। इसलिए एससीओ मंच भारत के लिए आतंकवाद पर वैश्विक सहमति बनाने का एक अवसर है।
3.चीन की चिंता – चीन के लिए भी शिंजियांग क्षेत्र में उग्रवाद और आतंकवाद एक समस्या है। इस लिहाज से भारत और चीन का सहयोग एक साझा मंच पर संभव हो सकता है।
कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचा: भविष्य की कुंजी
एससीओ का दूसरा बड़ा एजेंडा है कनेक्टिविटी और इंफ्रास्ट्रक्चर।
अंतरराष्ट्रीय कॉरिडोर: चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और भारत की इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जोड़ सकते हैं।
ऊर्जा सहयोग: रूस, ईरान और मध्य एशिया ऊर्जा संपन्न क्षेत्र हैं जबकि भारत और चीन बड़े उपभोक्ता हैं। बेहतर कनेक्टिविटी से ऊर्जा व्यापार सुगम होगा।
डिजिटल कनेक्टिविटी: भविष्य केवल सड़कों और रेल का नहीं है, बल्कि डिजिटल और तकनीकी सहयोग का भी है। एससीओ इस दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
वैश्विक दक्षिण के लिए संकेत
शशांक ने अपनी टिप्पणी में खासतौर पर वैश्विक दक्षिण (Global South) का जिक्र किया।
वैश्विक दक्षिण के देश विकासशील अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्हें बुनियादी ढांचे और सुरक्षा दोनों की आवश्यकता है।
एससीओ का मंच इन देशों को पश्चिमी देशों से अलग एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है।
भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों की उपस्थिति से वैश्विक दक्षिण के छोटे देशों को रणनीतिक संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है।
यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भूमिका
एससीओ के भीतर सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह दो बड़े भू-राजनीतिक क्षेत्रों – यूरेशिया और हिंद-प्रशांत – को जोड़ता है।
यूरेशियन क्षेत्र: यहां रूस और मध्य एशियाई देश प्रमुख खिलाड़ी हैं। ऊर्जा, सुरक्षा और भू-राजनीति यहां की प्रमुख चुनौतियां हैं।
हिंद-प्रशांत क्षेत्र: भारत, चीन और समुद्री व्यापार मार्ग इस क्षेत्र को वैश्विक शक्ति केंद्र बनाते हैं।
यदि एससीओ इन दोनों क्षेत्रों को साझा हितों के आधार पर जोड़ता है, तो यह पश्चिमी गठबंधनों का एक सशक्त विकल्प बन सकता है।
भारत की भूमिका
भारत के लिए एससीओ केवल एक बहुपक्षीय मंच नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है।
यह भारत को मध्य एशिया और रूस से जोड़ता है।
भारत को आतंकवाद पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर देता है।
ऊर्जा और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स में भारत की भूमिका को मजबूत करता है।
चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के बावजूद सहयोग का एक संतुलित रास्ता दिखाता है।
चुनौतियां और संभावनाएं
हालांकि संभावनाएं बहुत हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं।
1.भारत-चीन सीमा विवाद – यदि इस पर ठोस प्रगति नहीं होती तो द्विपक्षीय सहयोग सीमित रह जाएगा।
2.पाकिस्तान की भूमिका – पाकिस्तान का रवैया एससीओ की एकता को प्रभावित कर सकता है।
3.पश्चिमी दबाव – अमेरिका और यूरोपीय देशों की नीतियां भी एससीओ देशों के फैसलों पर असर डालती हैं।
इसके बावजूद, यदि भारत और चीन संवाद और सहयोग को आगे बढ़ाते हैं तो एससीओ भविष्य में वैश्विक व्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ बन सकता है।
निष्कर्ष
तियानजिन शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात केवल एक औपचारिक घटना नहीं थी, बल्कि वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन-हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए नए संकेत थी। पूर्व विदेश सचिव शशांक की यह राय कि *“पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी प्राथमिकता कनेक्टिविटी का निर्माण करना”– वास्तव में आने वाले वर्षों के लिए एससीओ के रोडमैप का आधार हो सकती है।
भारत के लिए यह अवसर है कि वह एससीओ के माध्यम से अपनी वैश्विक भूमिका को और मजबूत करे, जबकि चीन के लिए यह मौका है कि वह सहयोग की राह पर चलते हुए विश्वास बहाल करे। यदि दोनों देश यह जिम्मेदारी निभाते हैं, तो एससीओ वास्तव में 21वीं सदी का सबसे प्रभावशाली बहुपक्षीय संगठन बन सकता है।
शनिवार, 30 अगस्त 2025
"बिहार की सच्चाई – 1990 से पहले के 30 साल और आज का सवाल"
✍️ लेखक: दुर्गेश यादव
आज जब भी बिहार की राजनीति और उसकी प्रगति या दुर्गति पर चर्चा होती है, तो कुछ लोग आँकड़े उठाकर 1990 के बाद का समय गिनाना शुरू कर देते हैं। खासतौर पर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर जैसे लोग अक्सर यह कहते हैं कि 1990 से अब तक बिहार पिछड़ता चला गया। लेकिन सवाल यह है कि क्या 1990 से पहले बिहार स्वर्गलोक था? क्या उस समय के शासकों ने बिहार को विकास, समानता और सम्मान का कोई ऐसा मॉडल दिया था, जिस पर गर्व किया जा सके?
30 साल तक एक ही वर्ग का शासन
1952 से 1990 तक बिहार की सत्ता पर ज्यादातर समय सवर्ण जाति के नेता मुख्यमंत्री रहे।
1. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह (भूमिहार)
2. बिनोदानंद झा (ब्राह्मण)
3. हरिहर सिंह (राजपूत)
4. केदार पांडे (ब्राह्मण)
5. चंद्रशेखर सिंह (राजपूत)
6. बिंदेश्वरी दुबे (ब्राह्मण)
7. भागवत झा आज़ाद (ब्राह्मण)
8. सत्येंद्र नारायण सिन्हा (राजपूत)
9. जगन्नाथ मिश्रा (ब्राह्मण)
इनके कार्यकाल को जोड़ दिया जाए, तो लगभग 35 साल तक बिहार पर एक ही वर्ग का दबदबा रहा। सवाल उठता है कि इन दशकों में बिहार को क्या मिला?
सामाजिक यथार्थ – विकास से वंचित समाज
उस दौर में बिहार शिक्षा, उद्योग और रोज़गार में लगातार पिछड़ता रहा।
साक्षरता दर देश में सबसे नीचे रही।
उद्योग धंधे चौपट हो गए, पलायन बढ़ा।
सड़क, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसे मूलभूत क्षेत्र उपेक्षित रहे।
लेकिन इन सबके बीच सबसे कड़वी सच्चाई सामाजिक असमानता की थी।
दलितों और पिछड़ों की स्थिति
आज जब हम लोकतंत्र, अधिकार और समानता की बात करते हैं, तो याद रखना चाहिए कि 1990 से पहले बिहार के गाँवों में दलितों और पिछड़ों की हालत इंसान से भी बदतर थी।
दलितों को "स्तन टैक्स" और "मुँह देखने का टैक्स" जैसी अमानवीय प्रथाएँ झेलनी पड़ती थीं।
वे स्कूल में पढ़ने का सपना भी नहीं देख सकते थे।
गाँव की सड़कों पर सर उठाकर चलना उनके लिए अपराध माना जाता था।
ज़मींदार और सामंती ताक़तें उन्हें इंसान से कमतर समझती थीं।
क्या यह सब उन्हीं 30 साल के शासनकाल में नहीं हुआ, जब सवर्ण मुख्यमंत्री सत्ता में थे?
प्रशांत किशोर का एकतरफा लेखा-जोखा
आज प्रशांत किशोर उर्फ प्रशांत पांडे बिहार के भविष्य और वर्तमान की गिनती करते हुए 1990 के बाद की राजनीति पर सवाल उठाते हैं। वे लालू-राबड़ी राज की आलोचना करते हैं, नीतीश कुमार की नीतियों पर प्रश्न खड़े करते हैं। लेकिन वे कभी यह नहीं बताते कि 1952 से 1990 तक सत्ता पर काबिज नेताओं ने बिहार को किस हालत में छोड़ा था।
अगर उस दौर में शिक्षा, रोज़गार, समानता और न्याय का माहौल बनाया गया होता, तो क्या 1990 के बाद की राजनीति में "सामाजिक न्याय" का नारा इतना प्रबल हो पाता?
असली सवाल
बिहार की जनता से 30 साल तक सत्ता का सुख भोगने वाले इन नेताओं ने क्या एक भी ऐसा मॉडल खड़ा किया, जिस पर आज बिहार गर्व कर सके?
क्या उन्होंने समाज के सबसे वंचित वर्गों को बराबरी का हक़ दिया?
क्या उन्होंने गरीबी, अशिक्षा और असमानता से बिहार को निकालने का कोई गंभीर प्रयास किया?
सच्चाई यह है कि उन्होंने बिहार को सामंती ढाँचे में जकड़े रखा। विकास की बजाय वर्चस्व और जातिगत वर्चस्व की राजनीति हावी रही।
निष्कर्ष
बिहार की दुर्गति की जड़ केवल 1990 के बाद की राजनीति में नहीं है। उसकी नींव तो 1952 से 1990 के बीच ही रख दी गई थी, जब एक ही वर्ग की राजनीति ने राज्य को शिक्षा, उद्योग और सामाजिक न्याय से वंचित रखा। इसलिए यदि प्रशांत किशोर या कोई भी विश्लेषक ईमानदारी से बिहार की तस्वीर पेश करना चाहते हैं, तो उन्हें पूरे इतिहास को देखना होगा, न कि आधा-अधूरा लेखा-जोखा पेश करना।
बिहार की असली कहानी यह है कि यहाँ के गरीब, दलित, पिछड़े और वंचित तब भी हाशिए पर थे और आज भी संघर्ष कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि 1990 के बाद उन्होंने अपनी आवाज़ उठानी शुरू की।
शुक्रवार, 29 अगस्त 2025
अवध की राजनीति और ठाकुर नेतृत्व की जद्दोजहद
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण हमेशा से निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं। यह समीकरण समय-समय पर बदलते रहते हैं, लेकिन सामाजिक आधार के हिसाब से कुछ जातियां और समुदाय लगातार अपनी पकड़ बनाए रखते हैं। इन्हीं में से एक है ठाकुर यानी क्षत्रिय समाज। पूर्वी और मध्य उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा लंबे समय से ठाकुर नेताओं के प्रभाव में रहा है। रायबरेली, अमेठी और प्रतापगढ़ जैसे ज़िलों में तो ठाकुर नेताओं की एक पूरी परंपरा दिखाई देती है। इस पृष्ठभूमि में जब प्रदेश सरकार के पर्यटन मंत्री ठाकुर जयवीर सिंह रायबरेली विधायक मनोज पांडे द्वारा आयोजित कार्यक्रम में पहुंचे, तो राजनीतिक विश्लेषकों की निगाहें उनके इस दौरे पर टिक गईं।
जयवीर सिंह का उद्देश्य साफ दिखाई देता है—वे खुद को प्रदेश में एक बड़े ठाकुर नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अवध की यह ज़मीन उनके लिए उपजाऊ साबित होगी, या फिर पहले से जमे हुए ठाकुर नेताओं के बीच उनकी पहचान बनाने में उन्हें कठिनाई का सामना करना पड़ेगा?
अवध में ठाकुर नेतृत्व की लंबी परंपरा
अवध क्षेत्र की राजनीति में ठाकुर नेताओं की उपस्थिति नई नहीं है। प्रतापगढ़ के राजा भैया (रघुराज प्रताप सिंह) तीन दशकों से अधिक समय से एक प्रभावशाली ठाकुर चेहरा बने हुए हैं। अमेठी और रायबरेली में संजय सिंह जैसे नेताओं ने न केवल स्थानीय राजनीति बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बनाई। इसी कड़ी में मंत्री दिनेश सिंह और राकेश सिंह भी अपने-अपने इलाकों में मज़बूत राजनीतिक आधार रखते हैं।
इन नेताओं का प्रभाव सिर्फ एक विधानसभा या ज़िला तक सीमित नहीं है, बल्कि उनका असर पड़ोसी क्षेत्रों तक भी महसूस किया जाता है। यही कारण है कि अवध बेल्ट में नए ठाकुर नेता के लिए जगह बनाना आसान नहीं है।
जयवीर सिंह की चुनौती
पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह ने अब तक खुद को प्रशासनिक और संगठनात्मक क्षमताओं के बल पर स्थापित किया है। वे पार्टी में लंबे समय से सक्रिय हैं और कई बार विभिन्न ज़िम्मेदारियां निभा चुके हैं। लेकिन ठाकुर नेता के रूप में उन्हें जिस बड़े स्तर की स्वीकार्यता चाहिए, वह फिलहाल उन्हें नहीं मिल पाई है।
रायबरेली, अमेठी और प्रतापगढ़ जैसे ज़िलों में पहले से मौजूद बड़े नामों की वजह से जयवीर सिंह के लिए यहां पांव जमाना कठिन होगा। राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यदि वे वास्तव में ठाकुर समाज के बड़े नेता के रूप में पहचान बनाना चाहते हैं, तो उन्हें अवध की बजाय मैनपुरी और फर्रुखाबाद जैसे इलाकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जहां ठाकुर समुदाय की अच्छी खासी संख्या है लेकिन वहां कोई सर्वमान्य ठाकुर चेहरा अभी उभर कर सामने नहीं आया।
अवध में समीकरण क्यों कठिन हैं?
अवध क्षेत्र में ठाकुर नेतृत्व का दबदबा ऐतिहासिक और सामाजिक दोनों कारणों से मजबूत है। यहां के ठाकुर घराने न सिर्फ़ आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रभावशाली रहे हैं, बल्कि लंबे समय से राजनीति में भी सक्रिय हैं। जनता के बीच उनका एक सीधा रिश्ता बना हुआ है।
इसके अलावा, अवध में ठाकुर नेताओं की छवि महज़ जातीय राजनीति तक सीमित नहीं रही, बल्कि कई बार उन्होंने विकास, सामाजिक सरोकार और जनसरोकार के मुद्दों पर भी नेतृत्व किया है। यही कारण है कि उनके लिए जनता का विश्वास एक परंपरा की तरह बना हुआ है। ऐसे में किसी नए नेता का यहां आकर जगह बनाना आसान नहीं है।
जयवीर सिंह की रणनीति क्या हो सकती है?
अगर जयवीर सिंह वास्तव में अवध में अपनी पैठ बनाना चाहते हैं, तो उन्हें केवल ठाकुर पहचान के सहारे राजनीति करने की बजाय विकास और क्षेत्रीय मुद्दों पर जोर देना होगा। रायबरेली और अमेठी जैसे ज़िले कांग्रेस की विरासत माने जाते हैं और यहां भाजपा लगातार अपनी ज़मीन मजबूत करने की कोशिश कर रही है। इस लिहाज से जयवीर सिंह का इन इलाकों में सक्रिय होना पार्टी के लिए लाभकारी हो सकता है।
लेकिन जातीय नेतृत्व की होड़ में उन्हें लगातार यह महसूस कराया जाएगा कि यहां पहले से ही राजा भैया, संजय सिंह और दिनेश सिंह जैसे नाम मौजूद हैं। इस दबाव से बाहर निकलने के लिए उनकी रणनीति यह होनी चाहिए कि वे संगठनात्मक ढांचे और सरकारी योजनाओं को सीधे लोगों तक पहुंचाकर अपनी अलग पहचान गढ़ें।
मैनपुरी और फर्रुखाबाद की संभावना
राजनीतिक विश्लेषकों की राय में जयवीर सिंह के लिए मैनपुरी और फर्रुखाबाद की ज़मीन अपेक्षाकृत आसान साबित हो सकती है। मैनपुरी यादव राजनीति का गढ़ माना जाता है, लेकिन वहां ठाकुर समुदाय भी प्रभावशाली है। इसी तरह फर्रुखाबाद में भी ठाकुर वोट निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। यहां अगर जयवीर सिंह अपने समाज को संगठित कर पाते हैं तो उन्हें न सिर्फ़ क्षेत्रीय बल्कि प्रदेश स्तर पर भी एक मज़बूत ठाकुर नेता के रूप में पहचान मिल सकती है।
ठाकुर नेतृत्व का भविष्य
उत्तर प्रदेश की राजनीति में ठाकुर नेता हमेशा अहम रहे हैं। आज भी योगी आदित्यनाथ खुद एक बड़े ठाकुर चेहरे के रूप में मौजूद हैं। लेकिन योगी आदित्यनाथ की राजनीति मुख्य रूप से गोरखपुर और पूर्वांचल क्षेत्र तक सीमित है। अवध और पश्चिमी यूपी में ठाकुर समाज को जोड़ने के लिए एक नए चेहरे की तलाश लगातार होती रहती है।
जयवीर सिंह अगर इस चुनौती को स्वीकार कर सही रणनीति अपनाते हैं तो वे भविष्य में भाजपा के लिए एक बड़े ठाकुर नेता के रूप में सामने आ सकते हैं। लेकिन अगर वे केवल परंपरागत गढ़ों में ही अपनी पहचान बनाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें लगातार असफलताओं का सामना करना पड़ सकता है।
निष्कर्ष
पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह का रायबरेली दौरा और कार्यक्रम में उनकी सक्रियता निश्चित रूप से इस बात का संकेत है कि वे खुद को प्रदेश में एक बड़े ठाकुर नेता के रूप में स्थापित करना चाहते हैं। लेकिन अवध क्षेत्र में पहले से मौजूद मज़बूत ठाकुर चेहरों की वजह से उनके लिए यह सफर आसान नहीं होगा।
यदि वे वास्तव में प्रभावशाली नेतृत्व स्थापित करना चाहते हैं तो उन्हें मैनपुरी, फर्रुखाबाद और आसपास के उन इलाकों में अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी, जहां ठाकुर समाज संगठित तो है लेकिन उसके पास कोई बड़ा राजनीतिक नेतृत्व नहीं है। साथ ही उन्हें जातीय राजनीति से आगे बढ़कर विकास और जनता के मुद्दों पर अपनी पहचान गढ़नी होगी।
अवध की राजनीति में जगह बनाना आसान नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो नेता धैर्य, रणनीति और सामाजिक संतुलन साध लेता है, वह अंततः जनता के दिलों तक पहुंच ही जाता है। जयवीर सिंह के सामने यही चुनौती है—क्या वे इस राह पर चलकर खुद को एक बड़े ठाकुर नेता के रूप में स्थापित कर पाएंगे या फिर अवध की मज़बूत परंपरा उनके लिए बाधा बन जाएगी?
✍️दुर्गेश यादव!
बुधवार, 27 अगस्त 2025
आत्मनिर्भर भारत या अदानीनिर्भर भारत?
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2020 में आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया था, तब पूरे देश में आशा की एक नई लहर दौड़ी थी। कोरोना महामारी के कठिन समय में यह विचार लोगों को हिम्मत देने वाला साबित हुआ। लगा कि अब भारत अपनी आंतरिक शक्तियों पर भरोसा करेगा, विदेशी निर्भरता कम होगी और हर गाँव, हर कस्बे में रोजगार व उत्पादन के नए अवसर पैदा होंगे। “वोकल फॉर लोकल” का संदेश लोगों को यह विश्वास दिलाने वाला था कि सरकार अब सचमुच घरेलू उद्योगों, किसानों और छोटे कारोबारियों को मजबूती देने जा रही है।
लेकिन कुछ वर्षों में यह उम्मीद धीरे-धीरे संदेह और मोहभंग में बदलने लगी है। आत्मनिर्भर भारत का नारा जितना प्रभावशाली सुनाई देता है, उतनी ही गहरी उसकी वास्तविकता पर सवाल उठने लगे हैं।
स्वदेशी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में स्वदेशी आंदोलन की जड़ें गहरी हैं। आज़ादी की लड़ाई में स्वदेशी महज एक नारा नहीं था, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का प्रतीक था। महात्मा गांधी ने चरखे को अपनाकर यह संदेश दिया था कि असली स्वतंत्रता तभी संभव है जब हम अपने उत्पादन और अपनी आवश्यकताओं के लिए खुद पर निर्भर हों।
आजादी के बाद भी स्वदेशी की अवधारणा बार-बार चर्चा में आती रही है। लेकिन मौजूदा समय में यह शब्द एक नए अर्थ में इस्तेमाल हो रहा है। मंचों से आत्मनिर्भरता की बात तो होती है, पर नीति और व्यवहार में उसका असर कम दिखाई देता है।
बड़े उद्योग बनाम छोटे कारोबार
सरकार की नीतियाँ हाल के वर्षों में बड़े उद्योगपतियों को अधिक लाभ पहुँचाने वाली दिखाई देती हैं। अदानी-अंबानी जैसे चुनिंदा कारोबारी घराने अभूतपूर्व विस्तार कर रहे हैं। वहीं, छोटे और मझोले उद्योग, जो देश की अर्थव्यवस्था और रोजगार का बड़ा आधार हैं, लगातार संघर्ष कर रहे हैं।
यदि आत्मनिर्भर भारत का लक्ष्य सचमुच छोटे उद्योगों को सशक्त करना होता, तो उन्हें आसान कर्ज़, तकनीकी सहायता और बाज़ार की गारंटी दी जाती। कुटीर उद्योगों, हथकरघा, हस्तशिल्प और कृषि आधारित उद्यमों को संरक्षण मिलता। लेकिन नोटबंदी और जीएसटी जैसी नीतियों ने उलटे इन्हीं वर्गों को कमजोर कर दिया।
विरोधाभास स्पष्ट है
प्रधानमंत्री जी स्वदेशी और आत्मनिर्भरता का आह्वान करते हैं, लेकिन सत्ता से जुड़े वर्ग स्वयं विदेशी तकनीक, विदेशी पूंजी और विदेशी उत्पादों पर निर्भर रहते हैं। उदाहरण के लिए, बड़े उद्योग विदेशी वित्तीय संस्थानों से निवेश लेते हैं, अत्याधुनिक तकनीक आयात करते हैं और अपने विस्तार के लिए विदेशी कर्ज़ पर निर्भर हैं।
इस विरोधाभास से आम जनता में सवाल उठना स्वाभाविक है – यदि आत्मनिर्भरता वास्तव में सरकार की प्राथमिकता है तो यह केवल जनता से अपेक्षित क्यों है? सत्ता और उद्योगपति वर्ग के लिए विदेशी निर्भरता क्यों स्वीकृत है?
जनता की बढ़ती बेचैनी
भारत के ग्रामीण क्षेत्र, किसान और छोटे व्यापारी आज भी कठिनाइयों से जूझ रहे हैं। रोजगार के अवसर सीमित हैं, महंगाई लगातार बढ़ रही है और सरकारी नौकरियों के अवसर घटते जा रहे हैं। युवाओं का पलायन जारी है। यदि आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार होता, तो शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और रोजगार के क्षेत्र में ठोस सुधार दिखाई देते।
जनता धीरे-धीरे यह महसूस करने लगी है कि आत्मनिर्भरता का नारा वास्तविकता से अधिक प्रचार का हिस्सा है। छोटे और मझोले उद्योगों की स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़ती जा रही है।
आत्मनिर्भरता की असली परिभाषा
आत्मनिर्भरता का अर्थ केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना नहीं है। इसका वास्तविक अर्थ है –
1. स्थानीय उद्योगों को सशक्त करना,
2. किसानों को तकनीक और वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना,
3. युवाओं के लिए स्वरोजगार और उद्यमिता को प्रोत्साहित करना,
4. शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था को मज़बूत करना,
5. तकनीकी अनुसंधान और नवाचार में निवेश करना।
यदि ये कदम उठाए जाते तो आत्मनिर्भर भारत नारे से आगे बढ़कर जमीनी हकीकत बन सकता था।
सवाल जिनका उत्तर ज़रूरी है
1. क्या आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी पूरा होगा जब जनता विदेशी सामान छोड़े और बड़े उद्योगपति विदेशी पूंजी व तकनीक पर निर्भर बने रहें?
2. क्या सरकार ने छोटे उद्योगों और किसानों की बेहतरी के लिए उतने ही ठोस कदम उठाए हैं जितने बड़े उद्योगों के लिए?
3. क्या आत्मनिर्भर भारत का असली लाभ पूरे समाज को मिल रहा है या यह सीमित वर्ग के लिए अवसर का साधन बन चुका है?
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निष्कर्ष
आत्मनिर्भर भारत का विचार निस्संदेह समय की आवश्यकता है। यह देश को मजबूत बनाने का मार्ग है। लेकिन इसे केवल नारे और प्रचार तक सीमित रखना जनता के विश्वास के साथ अन्याय होगा।
प्रधानमंत्री जी यदि वास्तव में आत्मनिर्भर भारत का निर्माण करना चाहते हैं, तो उन्हें नीतियों में संतुलन लाना होगा। बड़े उद्योगों के साथ-साथ छोटे कारीगरों, किसानों और मझोले उद्यमियों को समान अवसर और संरक्षण देना होगा। तभी आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार होगा और जनता का विश्वास कायम रहेगा।
वरना इतिहास यही कहेगा कि – “आत्मनिर्भर भारत” जनता के लिए नारा था और “अदानीनिर्भर भारत” सत्ता की वास्तविकता।
✍️लेखक – दुर्गेश यादव!
मंगलवार, 26 अगस्त 2025
टैरिफ़ संकट : उप्र के निर्यातक तबाही के मुहाने पर कारीगरों और उद्योगों पर मंडराता ख़तरा
📰संपादकीय विशेष
उत्तर प्रदेश न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी कला, शिल्प और उद्योगों की विशिष्ट पहचान रखता है। बनारस की साड़ी, मुरादाबाद का पीतल, अलीगढ़ के ताले, भदोही का कालीन, कन्नौज का इत्र, सहारनपुर का लकड़ी का काम, लखनऊ की चिकनकारी, वाराणसी की ज़री-जरदोज़ी और गोरखपुर का टेराकोटा—ये सब मिलकर न सिर्फ प्रदेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं, बल्कि करोड़ों परिवारों की आजीविका का साधन भी।
लेकिन आज वही उद्योग-समुदाय टैरिफ़ संकट की मार से कराह रहा है। विदेशी बाज़ारों में लगाई गई प्रतिशोधात्मक टैरिफ़ और केंद्र सरकार की नीतिगत असफलताओं ने उत्तर प्रदेश के निर्यातकों को कठिन मोड़ पर खड़ा कर दिया है। जहाज़ों में माल फँसा हुआ है, भुगतान चक्र ठप हो गया है, और सप्लायर्स से लेकर ट्रांसपोर्ट सेक्टर तक हर कोई नुकसान झेल रहा है।
संकट की जड़ : गलत नीतियाँ
विदेशी बाज़ारों में प्रतिशोधात्मक टैरिफ़
कूटनीतिक स्तर पर समाधान की विफलता
छोटे कुटीर और लघु उद्योगों पर सबसे ज्यादा असर
निर्यातकों का कहना है कि मौजूदा संकट अचानक नहीं आया। यह सरकार की नीतिगत कमियों का परिणाम है। जब विदेशी देशों ने भारत के उत्पादों पर टैरिफ़ थोपे, तो कूटनीतिक स्तर पर पहल होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने समय रहते वैकल्पिक समाधान नहीं खोजा।
अरबों-खरबों का माल विदेशी जहाज़ों और बंदरगाहों में अटका
🔹 पेमेंट चक्र ठप, निर्यातकों पर पूँजी संकट
🔹 ODOP योजना नाकाम, राहत के नाम पर केवल प्रचार
🔹 कारीगर और शिल्पकार सबसे बड़े शिकार
🔹 प्रदेश में बेरोज़गारी और विकराल होने का खतरा ODOP योजना पर सवाल
उत्तर प्रदेश सरकार की ODOP (वन डिस्ट्रिक्ट-वन प्रोडक्ट) योजना को लेकर बड़े-बड़े दावे किए गए थे। कहा गया था कि यह प्रदेश के पारंपरिक उत्पादों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाएगी।
लेकिन जब संकट आया, तो यह योजना कहीं दिखाई नहीं दी। सवाल यह उठता है कि क्या ODOP केवल प्रदर्शनी और पोस्टरबाज़ी तक ही सीमित थी?
कारीगरों की दोहरी मार
यह संकट सिर्फ़ निर्यातकों तक सीमित नहीं। असली मार उन कारीगरों और मजदूरों पर पड़ रही है, जो महीनों तक मेहनत करके उत्पाद तैयार करते हैं।
बनारसी साड़ी बुनने वाला बुनकर
कन्नौज का इत्र बनाने वाला कारीगर
सहारनपुर का लकड़ी तराशने वाला शिल्पकार
गोरखपुर का टेराकोटा कलाकार
इनकी मेहनत का माल बिके बिना गोदामों में पड़ा है। पैसे न मिलने से रोज़मर्रा का खर्च तक चलाना मुश्किल हो रहा है।
समाधान की दिशा
इस संकट से बाहर निकलने के लिए सरकार के पास ठोस विकल्प हैं :
1. विशेष राहत पैकेज – पूँजी संकट से जूझ रहे निर्यातकों के लिए।
2. टैक्स और शुल्क में छूट – ODOP और अन्य उत्पादों को बढ़ावा देने के लिए।
3. कूटनीतिक पहल – विदेशी देशों के साथ वार्ता कर टैरिफ़ संकट का समाधान।
4. कारीगर सहायता योजना – मजदूरों को सीधे नकद और रोज़गार गारंटी।
5. लॉजिस्टिक्स सपोर्ट – बंदरगाहों और शिपमेंट में फँसे माल को छुड़ाने की विशेष व्यवस्था।
सवाल सरकार से
क्या सरकार की जिम्मेदारी केवल चुनावी भाषणों और विज्ञापन तक सीमित रह गई है?
क्या यह वही समय नहीं जब उसे अपने उद्योगपतियों, कारीगरों और निर्यातकों के साथ मजबूती से खड़ा होना चाहिए था?
दरअसल, कमी कोष की नहीं, सोच की है।
निष्कर्ष
यह संकट केवल व्यापार या निर्यात का नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की आजीविका और करोड़ों लोगों के भविष्य का सवाल है। अगर सरकार ने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए तो उप्र का निर्यात उद्योग चौपट हो जाएगा और बेरोज़गारी का सैलाब और विकराल रूप ले लेगा।
आज आवश्यकता है कि समाज, उद्योग और निर्यातक एकजुट होकर अपनी आवाज़ बुलंद करें और सरकार को मजबूर करें कि वह इस "टेरिफ़ाइंग टैरिफ़ इमर्जेंसी" में अपने लोगों के साथ खड़ी हो।
✍️ लेखक : दुर्गेश यादव.!
शुक्रवार, 22 अगस्त 2025
नरेंद्र मोदी का ढलता सूरज और राहुल गांधी का उगता हुआ नेतृत्व
दुर्गेश यादव -
देश की राजनीति इस समय संक्रमण काल से गुजर रही है। नरमोदी के नायकत्व का दौर धीरे-धीरे ढलान की ओर है और इसके समानांतर राहुल गांधी एक नए राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर रहे हैं। यह सिर्फ भारतीय परिदृश्य तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक लोकतांत्रिक राजनीति का नया पैटर्न है, जहां बड़े बदलाव किसी विचारधारा से अधिक किसी ‘नायक’ या ‘व्यक्ति’ के इर्द-गिर्द केंद्रित दिखाई दे रहे हैं।
पिछले दो दशकों में हमने देखा कि चाहे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप हों, फ्रांस में मैक्रों, ब्राजील में बोलसोनारो और अब लूला, इटली में मेलोनी, रूस में पुतिन या चीन में शी जिनपिंग—सत्ता और जनाकर्षण का केंद्र व्यक्ति विशेष ही बनता गया है। जनता को नायक चाहिए, जो उनकी समस्याओं का सीधा समाधान करने का दावा करे। भारत में 2014 में यह भूमिका नरेंद्र मोदी ने निभाई। उन्होंने खुद को ऐसा नेता प्रस्तुत किया जिसके पास हर समस्या का समाधान है। गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के बड़े सपनों ने उन्हें जनता का ‘नायक’ बना दिया।
लेकिन समय के साथ वह जादू टूटने लगा। मोदी सरकार ने दो बड़े वादे पूरे किए—राम मंदिर निर्माण और धारा 370 का खात्मा। परंतु देश का बड़ा तबका सिर्फ इन्हीं मुद्दों पर खड़ा नहीं था। उसे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई और आर्थिक सुरक्षा का समाधान चाहिए था। 11 सालों के बाद यह निराशा गहरी हो चुकी है। जनता समझ चुकी है कि जादू की छड़ी जैसी कोई चीज नहीं होती।
दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का उदाहरण भी इसी पैटर्न को दिखाता है। पहले उन्होंने भ्रष्टाचार-मुक्त राजनीति और जनहित की राजनीति का वादा किया, जनता ने भरोसा किया, लेकिन समय के साथ वह भी अपनी आभा खो बैठे। यही स्थिति नरेंद्र मोदी की भी होती जा रही है।
आज मोदी का समर्थन आधार मुख्य रूप से वही 20-25% वोटर हैं जो दक्षिणपंथी विचारधारा और जातिगत-सांस्कृतिक वर्चस्व से प्रेरित हैं। लेकिन बाकी मतदाता—विशेषकर वे 15-20% जिन्होंने नई उम्मीद के साथ मोदी को चुना था—अब उनसे उम्मीद छोड़ चुके हैं। यही शून्य राहुल गांधी भर रहे हैं।
राहुल गांधी पिछले कुछ वर्षों में बिल्कुल नए तेवर में सामने आए हैं। संविधान की रक्षा, लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्वतंत्रता, जाति-जनगणना, आरक्षण और समानता जैसे मुद्दों को उन्होंने केंद्र में रखा है। उनकी भारत जोड़ो यात्रा और हालिया ‘वोट चोरी विरोधी अभियान’ ने उन्हें आम लोगों से जोड़ने का काम किया है। संसद में उनका सीधा तेवर और जोखिम उठाने की क्षमता उन्हें मोदी का वास्तविक प्रतिद्वंद्वी बनाती है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि राहुल गांधी अकेले नहीं हैं। उनके साथ अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, एम.के. स्टालिन, ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे जैसे क्षेत्रीय नेता भी खड़े हैं, जो अपने-अपने राज्यों में मजबूत आधार रखते हैं। यह गठजोड़ न सिर्फ मोदी विरोध की राजनीति को धार दे रहा है, बल्कि एक व्यापक वैकल्पिक चेहरा भी गढ़ रहा है।
वैश्विक स्तर पर भी नरेंद्र मोदी की छवि कमजोर हुई है। कभी विश्वगुरु और वैश्विक नेता के रूप में प्रचारित मोदी आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हाशिए पर खड़े दिखाई देते हैं। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में अब राहुल गांधी का नेतृत्व एक गंभीर संभावना बनकर उभर रहा है।
बेशक, सत्ता में आने के बाद राहुल गांधी और उनका गठबंधन कितना सफल होगा, यह भविष्य बताएगा। यदि वे भी जनता की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाए, तो यह खोज किसी और नायक की ओर मुड़ जाएगी। लेकिन फिलहाल तस्वीर साफ है—देश एक नए सूरज के उदय का साक्षी बन रहा है।
आज की राजनीतिक फ़िज़ा यही कह रही है कि नरेंद्र मोदी रूपी सूरज ढल रहा है और राहुल गांधी का नेतृत्व नई आशा के साथ चमक रहा है।
बुधवार, 20 अगस्त 2025
किराएदारों की खामोश पीड़ा—एक अदृश्य शोषण
देश की गलियों और चौकों में आए दिन छोटी-छोटी घटनाओं पर धरना-प्रदर्शन, नारेबाज़ी और आंदोलन देखने को मिलते हैं। सरकारें नए-नए वादे करती हैं, विकास के दावे पेश किए जाते हैं। लेकिन इन्हीं नारों और वादों के शोर में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सबसे अधिक पीड़ित है, परंतु खामोश है। शायद उसने मान लिया है कि उसकी आवाज़ कभी संसद के गलियारों तक नहीं पहुँचेगी। यह वर्ग है—किराएदारों का, जिनमें हर मज़दूर, हर प्रवासी, हर छात्र शामिल है, जो घर से दूर काम या पढ़ाई की तलाश में निकलता है।
शहरों और कस्बों में किराए पर रहने वाले लोगों की ज़िंदगी आसान नहीं है। एक ओर रोज़गार और पढ़ाई का दबाव, दूसरी ओर मकान मालिकों और पीजी संचालकों का मनमाना रवैया। कमरे छोटे से छोटे होते जा रहे हैं, लेकिन किराया लगातार बढ़ रहा है। किराए की कोई सीमा तय नहीं है—मालिक का मन ही नियम है। नतीजा यह कि मज़दूर अपनी आधी से ज़्यादा कमाई, और छात्र अपनी अधिकांश पारिवारिक मदद सिर्फ किराए में खर्च कर देता है।
स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि किराएदार के पास अपनी कमाई का हिसाब तक नहीं बचता। एक रिपोर्ट के अनुसार, महानगरों में रहने वाले एक सामान्य कर्मचारी की आय का लगभग 40% हिस्सा किराए में चला जाता है। मज़दूर वर्ग और भी अधिक पीड़ा झेलता है, जहाँ अक्सर आधी आय सिर पर छत के नाम पर खर्च हो जाती है।
समस्या केवल किराए की अधिकता तक सीमित नहीं है। मकान मालिक और पीजी संचालक बिजली-पानी पर मनमाने नियम थोपते हैं। "इतनी ही बिजली जलेगी," "इतने बजे तक पानी चलेगा," "मेहमान नहीं आ सकते"—ये शर्तें आम हो चुकी हैं। किराएदार अपने ही पैसे से घर लेता है, पर उसका इस्तेमाल करने का अधिकार तक सीमित कर दिया जाता है। यह स्थिति कहीं न कहीं आधुनिक युग की गुलामी जैसी प्रतीत होती है।
सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि किराए का अधिकांश लेन-देन नकद में होता है। न कोई रसीद, न कोई प्रमाण। यदि किराएदार ऑनलाइन भुगतान की माँग करे, तो जवाब मिलता है—"नहीं चाहिए तो कमरा खाली कर दो।"यह दबाव और असुरक्षा हर महीने किराएदार की ज़िंदगी में एक नए डर का संचार करती है। इससे न केवल किराएदार का शोषण होता है, बल्कि देश को भी टैक्स चोरी के रूप में नुकसान उठाना पड़ता है।
हमारे देश के किराया कानून भी इस अन्याय से लड़ने में असमर्थ साबित हो रहे हैं। 1948 का किराया नियंत्रण अधिनियम आज की परिस्थितियों के हिसाब से बिल्कुल अप्रासंगिक हो चुका है। राज्यों ने अपने-अपने कानून तो बनाए, लेकिन उनका पालन मुश्किल से होता है। परिणाम यह है कि किराएदार आज भी पूरी तरह असुरक्षित है।
आख़िरकार सवाल यह है कि सरकारें इस मुद्दे पर मौन क्यों हैं? जब किसान, छात्र या व्यापारी सड़कों पर उतरते हैं, तो तुरंत राजनीतिक हलचल शुरू हो जाती है। मगर किराएदारों का वर्ग इतना बड़ा होने के बावजूद खामोश क्यों है? शायद इसलिए कि यह वर्ग बिखरा हुआ है, संगठित नहीं है। और यही उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन चुका है।
अब समय है कि इस मुद्दे को गंभीरता से लिया जाए। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है—
1. हर शहर में किराया नियंत्रण बोर्ड बने, जहाँ किराएदार अपनी शिकायत दर्ज करा सके।
2. हर किराए का भुगतान ऑनलाइन और पंजीकृत किया जाए।
3. किराए में बढ़ोतरी की एक वार्षिक सीमा तय हो।
4. मजदूरों, कर्मचारियों और छात्रों के लिए सस्ते व सम्मानजनक आवास योजनाएँ शुरू की जाएँ।
5. किरायेदारों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय नीति बनाई जाए।
भारत यदि वास्तव में “विश्वगुरु” बनने का सपना देख रहा है, तो उसे सबसे पहले अपने नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करना होगा। सिर पर छत केवल एक भौतिक सुविधा नहीं, बल्कि सम्मान और सुरक्षा का प्रतीक है। जब देश का मज़दूर, प्रवासी और छात्र ही अपने अधिकारों से वंचित रहेगा, तो विकास के सारे दावे अधूरे रहेंगे।
किराएदारों का दर्द खामोश है, लेकिन अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब वक्त है कि इस खामोश वर्ग की आवाज़ संसद के गलियारों तक पहुँचे और उन्हें उनका हक़ मिले।
✍️दुर्गेश यादव!
संपादकीय लेख कैसा लगा अपनी राय कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं!
धन्यवाद!
गुरुवार, 7 अगस्त 2025
आयोग पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है, तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?
🗳️“अगर जनता का वोट सुरक्षित नहीं, तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?”
यह सवाल आज हर भारतीय के दिल में उठ रहा है, और इसकी वजह है कांग्रेस नेता राहुल गांधी का वह बयान, जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है।
लोकतंत्र पर चोट?
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ हर वोट की अहमियत है। लेकिन जब चुनाव के बाद यह सुनने को मिले कि वोटों की चोरी हुई, कि ईवीएम से छेड़छाड़ की गई, या कि नतीजों को बदल दिया गया, तो सिर्फ एक नेता नहीं, हर नागरिक का दिल दुखता हैराहुल गांधी ने हाल ही में दावा किया कि उनके पास ऐसे ठोस सबूत हैं जो यह साबित करते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर वोटिंग प्रक्रिया में गड़बड़ियां हुईं।
क्या हैं राहुल गांधी के आरोप?
राहुल गांधी ने कहा:
“देश की आत्मा को खत्म किया जा रहा है। हम चुप नहीं बैठेंगे। हमने सबूत इकट्ठा किए हैं — फर्जी वोटिंग, ईवीएम में गड़बड़ी और मतगणना में धांधली। यह लोकतंत्र की हत्या है।”
उन्होंने कुछ वीडियो और दस्तावेज सार्वजनिक किए, जिनमें दिखाया गया कि कुछ पोलिंग बूथ्स पर एक ही व्यक्ति कई बार वोट डाल रहा है, और EVM और VVPAT मिलान में अंतर पाया गया।
चुनाव आयोग की चुप्पी पर सवाल
जब देश की जनता सवाल पूछ रही हो, और विपक्षी नेता खुलेआम चुनाव आयोग पर सवाल खड़े कर रहे हों — ऐसे में आयोग की चुप्पी और भी ज़्यादा संदेह पैदा करती है। अगर चुनाव निष्पक्ष हुए हैं, तो पारदर्शिता दिखाना क्या मुश्किल है?
विपक्ष का समर्थन
राहुल गांधी के खुलासे के बाद पूरे विपक्ष ने इस मुद्दे पर एकजुटता दिखाई है। INDIA गठबंधन के सभी प्रमुख नेता इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि एक न्यायिक जांच हो और भविष्य में बैलेट पेपर की वापसी की मांग भी उठ रही है।
जनता का दर्द
देश के लाखों लोग सोशल मीडिया पर #VotekiChori और #EVMBan करो जैसे हैशटैग चला रहे हैं।
हर आम नागरिक यही पूछ रहा है —
"अगर मेरा वोट सुरक्षित नहीं है, तो मेरी आवाज़ किसे सुनाई देगी?
निष्कर्ष: ये सिर्फ राहुल गांधी की लड़ाई नहीं है, ये हमारी है।
चुनाव कोई खेल नहीं है। यह एक नागरिक की सबसे बड़ी ताकत है। अगर इस पर सवाल उठ रहे हैं, तो हम सबकी जिम्मेदारी है कि जवाब माँगें। राहुल गांधी ने जो कदम उठाया है, वह भले ही राजनीतिक हो — लेकिन इसका असर हर आम इंसान के भविष्य पर पड़ेगा।
राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर वोटों की चोरी का बड़ा आरोप लगाया है। जानिए क्या हैं उनके सबूत, जनता की प्रतिक्रिया और क्या वाकई भारत का लोकतंत्र खतरे में है?
#राहुलगांधी #चुनावआयोग #वोटकीचोरी #EVMगड़बड़ी #लोकसभा2024 #भारतमेंचुनाव #भारतीयलोकतंत्र #ElectionFraudIndia #VoteChoriExpose #RahulGandhiNews #ElectionCommissionIndia
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