मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

राजनीति के मोहरे नहीं, बदलाव के वाहक बनें — यूपी-बिहार के युवाओं का भविष्य

“कदम मिलाओ नौजवानो, देश की डगर तुम्हारे पैरों से तय होगी।” भारत की युवा शक्ति दुनिया की सबसे बड़ी है, और उसका केंद्र है — उत्तर प्रदेश और बिहार। यह वही धरती है जहाँ गांधी, लोहिया और जयप्रकाश जैसे क्रांतिकारी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन आज यही भूमि एक दर्दनाक सच्चाई झेल रही है — युवाओं का राजनीतिक इस्तेमाल। रैलियों की भीड़ में खोते सपने, वादों की धूल में दबती उम्मीदें, और डिग्रियों के बावजूद अधूरे करियर — यही आज के युवाओं की असल कहानी है। 🎓 शिक्षा मिली, पर दिशा खो गई यूपी और बिहार में हर कस्बा “कोचिंग नगरी” बन चुका है। लाखों युवा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं, पर सफलता कुछ गिने-चुने हाथों में जाती है। बाकी के हिस्से में रह जाता है — निराशा, असुरक्षा और बेरोज़गारी। “विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति: परेषां परिपीडनाय।” (जब शिक्षा विवेक न दे, तो वह केवल अहंकार बन जाती है।) शिक्षा अब केवल परीक्षा पास करने का माध्यम बन गई है। विचार, विवेक और जीवन-दर्शन जैसे शब्द बस किताबों में रह गए हैं। पर राजनीति जानती है कि दिशाहीन भीड़ सबसे आसान लक्ष्य होती है। और यही से शुरू होता है युवाओं के इस्तेमाल का खेल। जब नौजवान नारा बन गया हर चुनावी मौसम में “युवा” सबसे ताकतवर शब्द बन जाता है। राजनीतिक मंचों पर भाषण होते हैं — “युवा देश का भविष्य हैं” पर सच्चाई यह है कि वही युवा पोस्टर चिपकाने और झंडा ढोने तक सीमित रह जाते हैं। “रामू कल तक कोचिंग जाता था, आज झंडा उठाता है, सपनों के बदले नारों की गूंज में खो जाता है।” राजनीति ने युवाओं को वोट बैंक में तब्दील कर दिया है। वो मुद्दों से नहीं, नारों से आकर्षित होते हैं। जाति, धर्म और भावनाएँ उनके विवेक पर हावी हो जाती हैं। और नतीजा? — चुनाव के बाद वही युवा फिर बेरोज़गार, फिर निराश। 📱 सोशल मीडिया का नया रणक्षेत्र पहले राजनीति गलियों और चौपालों में होती थी, अब वो मोबाइल की स्क्रीन पर खेली जा रही है। फेक न्यूज़, हेट पोस्ट और ट्रेंड्स के जरिए युवाओं की सोच को नियंत्रित किया जा रहा है। राजनीतिक दल अब भीड़ नहीं जुटाते, वे “डिजिटल भीड़” बनाते हैं — जो लाइक करती है, शेयर करती है, और बिना सोचे मान लेती है। “सूचना के युग में विवेक सबसे बड़ा अस्त्र है।” युवा यह नहीं समझ पा रहे कि वो सूचना के मालिक नहीं, बल्कि डेटा के उत्पाद बन चुके हैं। 🏠 सपनों का बोझ और समाज का दबाव यूपी-बिहार का हर घर एक सरकारी अधिकारी पैदा करना चाहता है। डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस — यही सफलता के प्रतीक हैं। लेकिन हर बच्चा इस साँचे में नहीं ढलता। जो कला, खेल या व्यवसाय की ओर झुकता है, उसे समाज “बेकार” या “भटका हुआ” कह देता है। “मन चंगा तो कठोर पत्थर भी मंदिर बनि जाय, पर दबाव में युवा का मन हर ओर से टूटि जाय।” यह सामाजिक सोच युवाओं की सृजनशीलता को कुचल रही है। जिस समाज ने सपनों की विविधता को स्वीकार नहीं किया, वह विकास में भी पिछड़ जाता है। 💡 क्या है समाधान? अब वक्त है कि युवाओं को समस्या नहीं, समाधान का केंद्र बनाया जाए। राजनीति में उनका इस्तेमाल नहीं, उनकी भागीदारी हो। 1. शिक्षा में सुधार और कौशल विकास स्कूल और कॉलेज केवल डिग्री न दें, बल्कि जीवन जीने की शिक्षा दें। Vocational Training, Skill Development, और Digital Literacy को अनिवार्य किया जाए। 2. राजनीतिक साक्षरता हर विश्वविद्यालय में युवाओं के लिए “राजनीतिक जागरूकता सत्र” हो, जहाँ उन्हें सिखाया जाए कि वोट केवल अधिकार नहीं, जिम्मेदारी है। 3. स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा दुग्ध, कपड़ा, कृषि-प्रसंस्करण और डिजिटल सेवाओं जैसे स्थानीय उद्योगों से युवाओं को जोड़ा जाए। “Start-up Gaon” मॉडल से गाँव-गाँव रोजगार पैदा किया जा सकता है। 4. कैरियर और मानसिक परामर्श बेरोज़गारी और असफलता से जूझते युवाओं के लिए हर जिले में “Career & Mental Health Centres” होने चाहिएं। 5. नीति निर्माण में युवाओं की भागीदारी पंचायत, नगर परिषद और जिला स्तर पर “युवा सलाहकार समितियाँ” बनाई जाएँ, ताकि युवा खुद अपनी नीतियाँ गढ़ें। 🌅 आशा की सुबह – जब युवा खुद जागेगा “उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।” (सफलता केवल संकल्प से नहीं, परिश्रम से मिलती है।) आज भी उम्मीद बाकी है। क्योंकि बदलाव की ताकत राजनीति में नहीं, बल्कि उसी युवा में है जिसने इसे संभव बनाया है। जब वह अपनी दिशा खुद तय करेगा, तब कोई उसे इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। जब वह सोचने, सवाल करने और सपने देखने लगेगा, तब यूपी-बिहार के युवाओं का भविष्य नहीं, पूरे देश का भविष्य बदल जाएगा। ✍️ निष्कर्ष: परिवर्तन तुम्हारे हाथों में है युवा अब यह तय करें — क्या वे केवल झंडा उठाएँगे या नया विचार गढ़ेंगे? क्या वे भीड़ का हिस्सा बनेंगे या परिवर्तन का चेहरा? “एक दीप सौं सौ दीप जलै, तम हरि जावै सारा, संग-संग चलो युवा सखा, यही परिवर्तन हमारा।” यूपी और बिहार के युवाओं के पास सबसे बड़ी ताकत है — उनकी संख्या, उनकी सोच और उनका साहस। बस जरूरत है उन्हें किसी पार्टी नहीं, खुद पर विश्वास करने की। जब युवा “भीड़” से “नेता” बनेगा, तब राजनीति नहीं, समाज बदलेगा। लेखक: ✍️ दुर्गेश कुमार यादव (स्वतंत्र लेखक एवं सामाजिक विषयों पर विचारक)

सोमवार, 29 सितंबर 2025

सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी: लद्दाख की आग में केंद्र की साजिश?

लेखक: दुर्गेश यादव लद्दाख की बर्फीली वादियां, जो कभी पर्यटकों की चहेती जगह रही हैं, आज आंदोलन की आग में जल रही हैं। 26 सितंबर 2025 को पर्यावरण कार्यकर्ता और शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी ने पूरे देश को हिला दिया है। राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत गिरफ्तार किए गए वांगचुक को राजस्थान के जोधपुर जेल भेज दिया गया। यह घटना लद्दाख में राज्यhood और संविधान की छठी अनुसूची की मांगों से जुड़े हिंसक प्रदर्शनों के ठीक दो दिन बाद हुई, जहां चार लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए। क्या यह गिरफ्तारी शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलने की कोशिश है? या केंद्र सरकार की 'राष्ट्रीय सुरक्षा' की आड़ में राजनीतिक साजिश? इस संपादकीय में हम इन सवालों का तार्किक विश्लेषण करेंगे, ताकि लोकतंत्र की इस परीक्षा को समझा जा सके। लद्दाख का आंदोलन: वादों का बोझ और युवाओं की हताशा लद्दाख का यह आंदोलन कोई नई बात नहीं। 2019 में जब केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा, तो लद्दाख को अलग यूटिलिटी (UT) बनाया गया। शुरू में स्थानीय लोगों ने इसका स्वागत किया, क्योंकि वे कश्मीर की छत्रछाया से मुक्त होना चाहते थे। लेकिन जल्द ही वादे टूटने लगे। भाजपा ने 2020 के लेह हिल काउंसिल चुनावों में छठी अनुसूची का वादा किया, जो आदिवासी क्षेत्रों को विशेष संरक्षण देती है। साथ ही राज्यhood, लेह-कारगिल के लिए अलग संसदीय सीटें, स्थानीय नौकरियों और जमीन पर अधिकार की मांगें उठीं। सोनम वांगचुक, जो '3 इडियट्स' फिल्म के प्रेरणा स्रोत भी हैं, इन मांगों के चेहरे बने। उन्होंने 10 सितंबर से 14 दिनों का अनशन शुरू किया। लेह एपेक्स बॉडी (LAB) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) के नेतृत्व में यह आंदोलन चला। लेकिन 24 सितंबर को प्रदर्शन हिंसक हो गए। प्रदर्शनकारियों ने सीआरपीएफ वाहनों को आग लगा दी, पुलिस ने लाठीचार्ज, आंसू गैस और गोलीबारी की। चार नागरिक मारे गए, 70 से ज्यादा घायल। अनशन के दौरान दो प्रदर्शनकारियों की हालत बिगड़ने पर हड़ताल बंद हुई, लेकिन तनाव बढ़ा। केंद्र ने इंटरनेट काट दिया, कर्फ्यू लगा दिया। यह हिंसा युवाओं की हताशा का प्रतीक है। लद्दाख में बेरोजगारी चरम पर है। स्नातक युवा सरकारी नौकरियों के लिए तरस रहे हैं, जबकि पर्यटन और पर्यावरण संकट से अर्थव्यवस्था चरमरा रही है। वांगचुक ने इसे 'जन जेड रेवोल्यूशन' कहा, नेपाल के आंदोलनों और अरब स्प्रिंग का जिक्र किया। क्या यह उकसावा था? या हताशा का इजहार? केंद्र सरकार का कहना है कि वांगचुक की 'उकसाने वाली' स्पीच ने हिंसा भड़काई। लेकिन वांगचुक ने आरोपों से इनकार किया और कहा कि यह सरकार की नाकामी का नतीजा है। गिरफ्तारी का राजनीतिक आयाम: एनएसए की काली छाया गिरफ्तारी का तरीका सवालों से भरा है। वांगचुक को लेह में डीजीपी एस.डी. जामवाल की अगुवाई में गिरफ्तार किया गया, ठीक उस प्रेस कॉन्फ्रेंस से पहले जो वे देने वाले थे। एनएसए के तहत बिना मुकदमे के हिरासत, जोधपुर जेल में स्थानांतरण – यह सब 'राष्ट्रीय सुरक्षा' का हवाला देकर किया गया। गृह मंत्रालय ने उनके एनजीओ 'स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख' (SECMOL) का एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया, आरोप लगाया कि विदेशी फंड का दुरुपयोग हुआ। साथ ही, हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ अल्टरनेटिव्स लद्दाख (HIAL) पर भी 1.5 करोड़ रुपये के विदेशी फंड के बिना रजिस्ट्रेशन का आरोप। लेकिन असली विवाद राजनीतिक है। लद्दाख डीजीपी ने कहा कि वांगचुक के पाकिस्तान कनेक्शन की जांच हो रही है। एक पाकिस्तानी PIO को गिरफ्तार किया गया, जो कथित तौर पर वांगचुक से संपर्क में था। वांगचुक ने पाकिस्तान के 'डॉन' इवेंट में हिस्सा लिया था। यह आरोप 'पाकिस्तान का हाथ' वाली पुरानी स्क्रिप्ट लगती है। विपक्ष का कहना है कि यह ध्यान भटकाने की चाल है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, "यह भाजपा की कानून-व्यवस्था की नाकामी को छिपाने की कोशिश है।" लद्दाख कांग्रेस प्रमुख नवांग रिगजिन जोरा ने वांगचुक को आंदोलन का चेहरा बताया और गिरफ्तारी को 'स्कैपगोट' कहा। आम आदमी पार्टी (AAP) ने इसे 'तानाशाही' करार दिया। अरविंद केजरीवाल ने कहा, "लोकतंत्र में आवाज दबाना गुनाह है।" सीपीआई(एमएल) लिबरेशन ने इसे 'विच हंट' कहा और अनुच्छेद 370 हटाने को 'कॉर्पोरेट लूट' का हथियार बताया। सोशल मीडिया पर #ReleaseSonamWangchuk ट्रेंड कर रहा है। ट्विटर पर यूजर्स वांगचुक को 'देशभक्त' बता रहे हैं, जबकि कुछ पाकिस्तान कनेक्शन पर सवाल उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने चुप्पी तोड़ी और केंद्र व आरएसएस पर निशाना साधा। यह गिरफ्तारी राजनीतिक गठजोड़ को भी प्रभावित कर रही है। LAB ने 29 सितंबर को दिल्ली जाने वाली अपनी डेलिगेशन रद्द कर दी, क्योंकि प्रदर्शनकारियों को 'राष्ट्र-विरोधी' कहा गया। 6 अक्टूबर को होने वाली बातचीत पर संकट आ गया। लद्दाख, जहां बौद्ध और मुस्लिम समुदाय शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व रखते हैं, अब ध्रुवीकरण का शिकार हो रहा है। केंद्र की रणनीति: संवाद क्यों टूटा? केंद्र सरकार का तर्क है कि वांगचुक की गतिविधियां 'सुरक्षा के लिए खतरा' हैं। लेह प्रशासन ने कहा, "उनकी कार्रवाइयों से शांति भंग हो रही थी।" लेकिन तथ्य कुछ और कहते हैं। लद्दाख में पर्यटन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। कर्फ्यू और इंटरनेट बंदी से रद्दीकरण बढ़ गए, पर्यटक फंस गए। यह आर्थिक नुकसान केंद्र को भी चुभ रहा होगा। फिर गिरफ्तारी क्यों? क्या यह कॉर्पोरेट हितों की रक्षा है? लद्दाख के संसाधनों पर नजर है – खनन, पर्यटन, सीमा सुरक्षा। वांगचुक का पर्यावरण आंदोलन इनके खिलाफ खड़ा है। राजनीतिक रूप से, यह भाजपा के लिए जोखिम भरा है। 2019 में लद्दाख ने भाजपा को समर्थन दिया, लेकिन अब स्थानीय नेता जैसे हाजी हनीफा गिरफ्तारी की निंदा कर रहे हैं। विपक्ष इसे 'लोकतंत्र की हत्या' बता रहा है। अगर पाकिस्तान कनेक्शन साबित हो गया, तो आंदोलन कमजोर पड़ सकता है। लेकिन अभी यह बिना सबूत का आरोप लगता है। एडीजीपी ने कथित तौर पर स्वीकार किया कि गिरफ्तारी डिफेंस मिनिस्ट्री के दबाव में हुई। निष्कर्ष: संवाद ही रास्ता, दमन नहीं सोनम वांगचुक की गिरफ्तारी लद्दाख के आंदोलन को दबाने की बजाय और भड़का रही है। जयपुर, दिल्ली में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। यह राजनीतिक गठजोड़ का संकट है – केंद्र बनाम स्थानीय। एनएसए जैसे कानून लोकतंत्र के लिए खतरा हैं। सरकार को वांगचुक को रिहा करना चाहिए, LAB-KDA से बातचीत बहाल करनी चाहिए। लद्दाख के युवाओं की आवाज दबाने से समस्या हल नहीं होगी, बल्कि चीन-पाकिस्तान सीमा पर असंतोष बढ़ेगा। भारत का लोकतंत्र मजबूत तभी होगा, जब केंद्र वादों को पूरा करे। छठी अनुसूची लागू हो, राज्यhood पर विचार हो। वांगचुक जैसे कार्यकर्ता देशभक्त हैं, न कि दुश्मन। उनकी रिहाई ही शांति का पहला कदम होगी। अन्यथा, लद्दाख की बर्फीली चोटियां गवाही देंगी कि कैसे एक आंदोलन ने राजनीतिक भूलों को उजागर कर दिया।

बुधवार, 17 सितंबर 2025

बीजेपी का 75 साल का जुमला: कथनी और करनी में फर्क

भारत में राजनीति में नियम-कानून हर पार्टी के लिए मायने रखते हैं… या कम से कम होना चाहिए। लेकिन जब बात आती है बीजेपी और उसके नेताओं की, तो “नियम” और “व्यक्तिगत सुविधाएँ” अक्सर अलग-अलग रास्ते पर चलते दिखते हैं। खासकर जब बात आती है 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट की। बीजेपी हमेशा यह दावा करती रही है कि उसके नेता 75 साल की उम्र के बाद राजनीति से संन्यास ले लेंगे। यह नियम पार्टी में युवा नेतृत्व को बढ़ावा देने और वरिष्ठ नेताओं को समय पर संन्यास लेने के लिए लाया गया था। लगता तो सब सही और नेक नियत वाला कदम है। लेकिन जैसे ही आप गहराई में जाएँ, पता चलता है कि यह केवल कथनी थी, करनी नहीं। कथनी और करनी का अंतर - आइए थोड़ा इतिहास याद करें। लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह और कलराज मिश्र—ये सभी नाम बीजेपी के बड़े नेताओं के हैं। इन सभी को 75 साल की उम्र में या उसके आसपास सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिया गया। पार्टी ने इसे नियम और अनुशासन का हिस्सा बताया। लेकिन अब जब वही उम्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और RSS प्रमुख मोहन भागवत तक पहुँच गई है, तो वही नियम अचानक गायब सा हो गया है। लगता है कि नियम केवल तब लागू होता है जब बात सामान्य नेताओं की हो, लेकिन बड़े नेताओं और खुद पीएम की सुविधा के लिए इसे मोड़ा जा सकता है। यहां साफ दिखता है कि बीजेपी में नियम केवल छवि बनाने के लिए थे। जनता को यह दिखाने के लिए कि पार्टी “नियमों की पाबंद” है। और जब वास्तविक सत्ता के मामले आते हैं, तो वही नियम झुक जाता है। मोहन भागवत का यूटर्न- मोहन भागवत ने पहले कहा था कि नेताओं को 75 साल की उम्र में संन्यास ले लेना चाहिए। यह बयान सुनकर विपक्ष और जनता दोनों की उम्मीद जगी कि अब RSS और बीजेपी में नियम सबके लिए बराबर लागू होगा। लेकिन कुछ ही समय बाद, भागवत ने अपने बयान से पीछे हटते हुए कहा कि उन्होंने कभी किसी पर 75 साल की उम्र में रिटायरमेंट का दबाव नहीं डाला। और इस नियम को संविधानिक पदों पर लागू नहीं माना। सवाल उठता है—अगर यह नियम सामान्य नेताओं पर लागू हो सकता है, तो भागवत और मोदी पर क्यों नहीं? क्या उन्हें “विशेष सुविधा” दी जा रही है? विपक्षी सवाल और मजाक- इस मुद्दे पर विपक्ष ने जमकर सवाल उठाए। अरविंद केजरीवाल ने मोहन भागवत को पत्र लिखा और पूछा कि अगर नियम आडवाणी और जोशी पर लागू हो सकता है, तो मोदी पर क्यों नहीं। कांग्रेस नेताओं ने भी यह सवाल उठाया कि प्रधानमंत्री मोदी 75 साल के हो चुके हैं, तो क्या अब उन्हें रिटायर हो जाना चाहिए? या फिर नियम केवल आम नेताओं के लिए है, बड़े नेताओं के लिए नहीं? सामान्य जनता के लिए यह सवाल ताज्जुब और हंसी दोनों लाता है। एक तरफ पार्टी नियम की बातें करती है, दूसरी तरफ वही नियम सिर्फ दिखावा बनकर रह जाता है। बीजेपी के नियम का सच- बीजेपी और RSS की स्थिति साफ नहीं है। नियम है या नहीं, यह जनता के सामने अस्पष्ट है। और इस अस्पष्टता का फायदा सिर्फ बड़े नेताओं को मिलता है। असल में, बीजेपी में नियम केवल एक PR स्टंट की तरह है—जनता को दिखाने के लिए कि पार्टी अनुशासन में है। और जब बात शक्ति के वास्तविक केंद्र की आती है, तो नियम अचानक गायब हो जाता है। यानी, कथनी और करनी में जमीन-आसमान का फर्क है। आम जनता और छोटे नेता नियम के अधीन रहते हैं, बड़े नेता अपनी सुविधा अनुसार खुद को अलग रखते हैं। जनता के लिए संदेश - इस पूरे मसले का सबसे बड़ा असर जनता पर पड़ता है। जब नियम सिर्फ कुछ लोगों पर लागू होते हैं और शक्तिशाली नेताओं पर नहीं, तो यह लोकतंत्र की समानता और निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। 75 साल का नियम अगर सच में लागू होता, तो मोदी और भागवत दोनों को राजनीति से पीछे हट जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे जनता को यह संदेश जाता है कि बीजेपी में नियम केवल दिखावा है। बीजेपी का 75 साल का नियम एक जुमला है। कथनी और करनी में फर्क साफ है। सामान्य नेता—नियम के अनुसार रिटायर। बड़े नेता—नियम उनके लिए लागू नहीं। जब तक पार्टी इस दोहरे मानदंड को स्पष्ट नहीं करती, जनता के मन में सवाल और संदेह बने रहेंगे। यह सिर्फ नेतृत्व के प्रति जनता का विश्वास ही नहीं, बल्कि पार्टी की छवि पर भी बड़ा असर डालता है। अंत में कह सकता हूँ—बीजेपी का 75 साल का नियम केवल PR और दिखावे का खेल है। कथनी और करनी में यह फर्क साफ है। जनता अब इसे देख रही है, समझ रही है, और भविष्य में इसका हिसाब भी मांगने वाली है। --- लेखक: दुर्गेश यादव! (राजनीति और सामाजिक विश्लेषक)

बुधवार, 3 सितंबर 2025

लालू प्रसाद यादव : संघर्षों से तपकर निकला भारतीय राजनीति का बब्बर शेर

भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में अनेक ऐसे नेता हुए हैं, जिनकी पहचान केवल राजनीतिक पदों से नहीं बल्कि जनता के दिलों में दर्ज होती है। ऐसे ही नेताओं की सूची में एक अनोखा नाम है लालू प्रसाद यादव। वे केवल एक नेता नहीं बल्कि भारतीय राजनीति में एक ऐसी विचारधारा का प्रतीक हैं, जिसने ग़रीबों, पिछड़ों और वंचित तबके को केंद्र में लाकर खड़ा किया। लालू प्रसाद को अपदस्थ करने के लिए सत्ता के गलियारों में अनगिनत षड्यंत्र रचे गए। कभी 19 केंद्रीय मंत्री बनाकर उनका किला गिराने की कोशिश हुई, कभी सिनेमा के पर्दे पर उनकी छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया, और अंततः संसद में विशेष अध्यादेश तक लाया गया। लेकिन इसके बावजूद वे अपने संघर्ष, जुझारूपन और जनाधार से भारतीय राजनीति में एक बब्बर शेर की तरह खड़े रहे। सत्ता से हटाने का राष्ट्रीय प्रोजेक्ट 1998 में जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी, तब बिहार से रिकॉर्ड 19 केंद्रीय मंत्री बनाए गए। भाजपा और उसके सहयोगियों ने खुलकर कहा कि यह कदम केवल लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक ताक़त को तोड़ने के लिए उठाया गया है। उस दौर में नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, जॉर्ज फ़र्नांडिस और कई दिग्गजों को केंद्र की राजनीति में जगह दी गई। लेकिन छह साल तक सत्ता में रहने के बाद भी लालू प्रसाद को हाशिये पर नहीं धकेला जा सका। 2004 : “इंडिया शाइनिंग” की हार और लालू की जीत 2004 के लोकसभा चुनाव भाजपा ने “इंडिया शाइनिंग” अभियान के साथ लड़ा। उस समय मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान को पूरा भरोसा था कि भाजपा फिर से सत्ता में आएगी। लेकिन बिहार की धरती पर लालू प्रसाद यादव ने चमत्कार कर दिया। उनकी पार्टी राजद ने 24 सीटें जीतकर एनडीए की रणनीति ध्वस्त कर दी। यूपीए सरकार बनी और लालू प्रसाद रेल मंत्री बने। यही वह दौर था जब उन्होंने भारतीय रेलवे को घाटे से उबारकर लाभ में लाकर पूरी दुनिया को चौंका दिया। हार्वर्ड से लेकर वॉर्टन तक के बिजनेस स्कूलों ने उनके “रेलवे मॉडल” पर केस स्टडी तैयार की। सेना बुलाने तक की नौबत भारतीय राजनीति का यह भी एक अनोखा अध्याय है कि लालू प्रसाद यादव को गिरफ़्तार करने के लिए सेना बुलाने तक की तैयारी की गई। ऐसा किसी और नेता के साथ कभी नहीं हुआ। यह घटना बताती है कि उनकी राजनीतिक शक्ति किस स्तर तक थी और किस हद तक वे सत्ता प्रतिष्ठान के लिए चुनौती बन चुके थे। फ़िल्मों से राजनीति तक की तिकड़म सिर्फ़ राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लालू यादव को घेरने की कोशिश की गई। बिहार के फ़िल्म निर्माता प्रकाश झा से गंगाजल और अपहरण जैसी फ़िल्में बनवाई गईं। इन फ़िल्मों को जनता ने लालू प्रसाद के राजनीतिक जीवन से जोड़कर देखा। बाद में यही प्रकाश झा नीतीश कुमार के टिकट पर लोकसभा चुनाव में उतरे। यह महज़ संयोग नहीं था, बल्कि राजनीति और सिनेमा के गठजोड़ से किसी नेता को बदनाम करने का सुनियोजित प्रयोग था। विशेष अध्यादेश और राजनीतिक शिकार लालू प्रसाद यादव पहले ऐसे नेता बने जिनके लिए संसद में विशेष अध्यादेश लाया गया। इस क़ानून के तहत उन्हें चुनाव लड़ने और सार्वजनिक जीवन से वंचित कर दिया गया। विडंबना यह है कि आज उसी देश की राजनीति में बलात्कार जैसे अपराधों में सजायाफ्ता लोग सत्ता का आनंद लेते हैं। लेकिन जिनके लिए “विशेष कानून” बनाया गया, वे लालू प्रसाद यादव ही थे। ग़रीबों का नेता और जनता का भरोसा लालू प्रसाद यादव की असली ताक़त सत्ता नहीं बल्कि जनता थी। उनका अंदाज़, उनकी भाषा और उनका बोलने का तरीका सीधा आम आदमी से जुड़ता था। गाँव का किसान उन्हें अपना मानता था। दलित-पिछड़े उनके भाषणों में अपना भविष्य देखते थे। मुसलमानों ने उन्हें अपनी सुरक्षा का प्रतीक माना। यही कारण था कि विपक्षी उन्हें चाहे जितना “गँवार” कहें, लेकिन ग़रीबों की भीड़ उन्हें “माई का लाल” कहती रही। स्वास्थ्य चुनौतियों के बीच अडिग लालू प्रसाद यादव का जीवन व्यक्तिगत संघर्षों से भी भरा रहा है। उन्होंने ओपन हार्ट सर्जरी करवाई। किडनी ट्रांसप्लांट से गुज़रे। एक दर्जन से अधिक गंभीर बीमारियों से लड़ रहे हैं। इसके बावजूद वे 75 वर्ष की उम्र में भी पूरी ऊर्जा और जज़्बे के साथ राजनीतिक मैदान में सक्रिय हैं। यही उन्हें भारतीय राजनीति का योद्धा बनाता है। भाषण और तर्क की अद्भुत क्षमता लालू प्रसाद यादव को भीड़ को साधने की कला बख़ूबी आती थी। वे कठिन से कठिन मुद्दे को सरल भाषा में जनता तक पहुँचाते थे। उनके भाषणों में हँसी-ठिठोली भी होती थी और गंभीर राजनीतिक तर्क भी। वे विरोधियों पर व्यंग्य करते हुए भी उन्हें व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते थे। यही कारण है कि उनका अंदाज़ जनता को आकर्षित करता और विरोधियों को असहज बना देता। अगर वे भी “धूर्त राजनीति” करते तो… लालू प्रसाद यादव पर भ्रष्टाचार के आरोप जरूर लगे, लेकिन उन्होंने कभी राजनीति को प्रतिशोध और षड्यंत्र का साधन नहीं बनाया। यदि वे अपने विरोधियों की तरह ईर्ष्या और धूर्तता से राजनीति करते, तो आज कई बड़े नेताओं का चेहरा उजागर हो चुका होता। उनकी यह खासियत उन्हें भीड़ से अलग करती है। निष्कर्ष लालू प्रसाद यादव भारतीय राजनीति का वह नाम हैं जिन्हें मिटाने की तमाम कोशिशें हुईं, लेकिन हर बार वे और मज़बूत होकर उभरे। सत्ता के षड्यंत्र, मीडिया की नकारात्मक छवियाँ, विशेष अध्यादेश और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ—इन सबके बावजूद वे आज भी ग़रीबों और पिछड़ों की उम्मीद बने हुए हैं। वे सचमुच भारतीय राजनीति के बब्बर शेर हैं, जिनकी दहाड़ आज भी समाजवाद के गलियारों में गूँजती है। साहब, आपके जज़्बे को सलाम। समाजवाद ज़िंदाबाद। ✍️ लेखक :दुर्गेश यादव!

सोमवार, 1 सितंबर 2025

भारत-चीन संबंध: व्यापार, विश्वास और सीमा विवादों का विश्लेषण

लेखक: दुर्गेश यादव आज की वैश्विक राजनीति में भारत और चीन के बीच संबंध एक जटिल पहेली की तरह हैं। दोनों देश एशिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र और आर्थिक शक्ति हैं, लेकिन सीमा विवाद, व्यापार असंतुलन और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा इनके बीच तनाव पैदा करती रहती है। 2025 में, जब दुनिया अमेरिकी टैरिफ्स और वैश्विक मंदी से जूझ रही है, भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों में कुछ सुधार के संकेत दिख रहे हैं, लेकिन विश्वास की कमी और ऐतिहासिक घटनाएं इनकी दोस्ती पर सवाल उठाती हैं। क्या भारत-चीन व्यापार से वास्तव में दोनों को फायदा हो रहा है? क्या दोनों देशों की दोस्ती पर भरोसा किया जा सकता है? क्या चीन ने भारत-पाक युद्धों में पाकिस्तान का साथ दिया था? गलवान घाटी में हालात सुधरे हैं या नहीं? और क्या चीन कभी भारत के क्षेत्रों से कब्जा हटा लेगा? इन सभी मुद्दों पर एक तार्किक विश्लेषण आवश्यक है। यह लेख इन सवालों का सरल भाषा में उत्तर देगा, तथ्यों और हालिया घटनाओं के आधार पर। भारत-चीन व्यापार: असंतुलन का बोझ भारत पर भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंध तेजी से बढ़े हैं। 2024-25 में द्विपक्षीय व्यापार 113.5 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें भारत का निर्यात 14.25 अरब डॉलर और आयात 113.5 अरब डॉलर रहा। चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, लेकिन यह संबंध असमान है। भारत का व्यापार घाटा 99.2 अरब डॉलर हो गया, जो पिछले साल के 85.1 अरब डॉलर से अधिक है। भारत मुख्य रूप से कच्चे माल जैसे लौह अयस्क, झींगा और कास्टर ऑयल निर्यात करता है, जबकि चीन से इलेक्ट्रॉनिक्स, मशीनरी, सोलर सेल्स और दवाओं के कच्चे माल आयात होते हैं। इस व्यापार से चीन को अधिक फायदा हो रहा है। चीन भारत को कच्चा माल बेचकर मूल्यवर्धन करता है और भारत की अर्थव्यवस्था पर निर्भरता बढ़ाता है। उदाहरणस्वरूप, भारत की 82.7 प्रतिशत सोलर सेल्स और 75.2 प्रतिशत लिथियम-आयन बैटरी चीन से आती हैं। अमेरिकी टैरिफ्स के कारण 2025 में भारत-चीन व्यापार बढ़ा है, क्योंकि दोनों देश अमेरिकी दबाव से बचने के लिए एक-दूसरे की ओर रुख कर रहे हैं। हाल ही में, सीधे उड़ानें बहाल हुईं और सीमा व्यापार फिर शुरू हुआ, जैसे लिपुलेख, शिपकी ला और नाथू ला पास पर। लेकिन भारत के लिए यह फायदेमंद नहीं। व्यापार घाटा भारत की अर्थव्यवस्था को कमजोर करता है और चीन पर निर्भरता बढ़ाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को 'चाइना प्लस वन' रणनीति अपनानी चाहिए, जहां विदेशी निवेश को विविधीकृत किया जाए। 2025 के बजट में भारत ने रिसर्च एंड डेवलपमेंट (आरएंडडी) और उत्पादन लिंक्ड इंसेंटिव (पीएलआई) योजना को मजबूत किया है, ताकि आयात पर निर्भरता कम हो। फिर भी, चीन के टैरिफ बैरियर जैसे कृषि उत्पादों पर 5-25 प्रतिशत शुल्क भारत के निर्यात को रोकते हैं। कुल मिलाकर, व्यापार से चीन को आर्थिक लाभ मिल रहा है, जबकि भारत घाटे का शिकार हो रहा है। भारत को संतुलित व्यापार के लिए कूटनीतिक प्रयास तेज करने होंगे। भारत-चीन दोस्ती: विश्वास का संकट क्या भारत और चीन की दोस्ती पर भरोसा किया जा सकता है? इतिहास और वर्तमान घटनाएं कहती हैं कि नहीं। दोनों देशों के बीच 1962 का युद्ध, 2017 का डोकलाम स्टैंडऑफ और 2020 का गलवान संघर्ष विश्वास की कमी को दर्शाते हैं। 2025 में, अमेरिकी टैरिफ्स के कारण दोनों देश करीब आए हैं। प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अक्टूबर 2024 की ब्रिक्स बैठक में 'सकारात्मक दिशा' की बात हुई, और सीधे उड़ानें बहाल हुईं। लेकिन यह सतही है। चीन भारत को 'साझेदार' कहता है, लेकिन उसके कार्य उलटे हैं। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) भारत-प्रशासित कश्मीर से गुजरता है, जो भारत की संप्रभुता का उल्लंघन है। चीन ने अरुणाचल प्रदेश के 27 स्थानों के नाम बदले, जो भारत का अभिन्न अंग है। विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन की 'सालामी स्लाइसिंग' रणनीति से वह धीरे-धीरे क्षेत्र हथिया रहा है। 2025 में, स्कॉ समिट में मोदी और शी की मुलाकात हुई, लेकिन सीमा पर 50,000 सैनिक अभी भी तैनात हैं। भारत को चीन पर भरोसा नहीं करना चाहिए। दोनों की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं टकराती हैं – भारत क्वाड और इंडो-पैसिफिक में अमेरिका के साथ है, जबकि चीन बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) से प्रभाव बढ़ा रहा है। दोस्ती संभव है, लेकिन केवल यदि चीन सीमा विवाद सुलझाए। फिलहाल, सतर्कता आवश्यक है। ## भारत-पाक युद्धों में चीन का साथ: पाकिस्तान का 'सबसे अच्छा दोस्त' क्या चीन ने भारत-पाक युद्धों में पाकिस्तान का साथ नहीं दिया? इतिहास हां कहता है। 1965 के युद्ध में, चीन ने भारत को सिक्किम सीमा पर सैन्य संरचनाएं हटाने का अल्टीमेटम दिया, जिससे भारत की सेना पश्चिमी मोर्चे पर कमजोर हुई। चीन ने पाकिस्तान को 250 मिलियन डॉलर का सैन्य सहायता दिया। 1971 के युद्ध में, चीन ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का समर्थन किया और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में पाकिस्तानी सेना की निकासी के लिए जहाज भेजे। हालांकि सीधे हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन हथियार और कूटनीतिक सहायता दी। 2025 में भी, चीन पाकिस्तान का 'सबसे अच्छा दोस्त' है। सीपीईसी के तहत 62 अरब डॉलर का निवेश, जिसमें ग्वादर बंदरगाह शामिल है, पाकिस्तान को मजबूत करता है। हाल के भारत-पाक तनाव में, चीन ने पाकिस्तान को एचक्यू-9 मिसाइलें और जे-10 विमान दिए। चीन भारत को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान का उपयोग करता है। यह 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' रणनीति का हिस्सा है, जहां पाकिस्तान चीन का हथियार है। भारत को सतर्क रहना होगा। गलवान घाटी: हालात सुधरे, लेकिन पूरी तरह नहीं 2020 का गलवान संघर्ष भारत-चीन संबंधों का टर्निंग पॉइंट था। 15 जून को, 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए, जबकि चीन ने 4 की मौत मानी (अमेरिकी खुफिया के अनुसार 35)। यह 45 वर्षों में पहली घातक टकराव था। संघर्ष के बाद, दोनों पक्षों ने 50,000 सैनिक तैनात किए। 2025 तक, हालात सुधरे हैं। 2024 के अक्टूबर समझौते से डिसएंगेजमेंट हुआ – पांगोंग त्सो, गलवान और डेपसांग से सैनिक हटे। अब पैट्रोलिंग बहाल है। लेकिन डे-इंडक्शन (सैनिकों की वापसी) नहीं हुआ। 2025 में, स्कॉ समिट में मोदी-शी मुलाकात से सकारात्मक संकेत मिले, लेकिन 100,000 सैनिक अभी भी हैं। भारत ने बुनियादी ढांचा मजबूत किया, जैसे डीएसडीबीओ सड़क। सुधार हुआ, लेकिन पूर्ण सामान्य नहीं। तनाव बरकरार है। चीन का कब्जा: हटेगा या नहीं? क्या चीन भारत के क्षेत्रों से कब्जा हटा लेगा? संभावना कम है। चीन ने 38,000 वर्ग किमी अक्साई चिन पर कब्जा रखा है, जो लद्दाख का हिस्सा है। 2020 के बाद, डेपसांग और डेमचोक में 2,000 वर्ग किमी पर नियंत्रण बढ़ा। 2023 में, चीन ने हॉटन में दो नए काउंटी बनाए, जो लद्दाख में आते हैं। भारत ने विरोध किया, लेकिन चीन ने नामकरण जारी रखा। चीन की 'ग्रे जोन' रणनीति से वह धीरे-धीरे क्षेत्र हथिया रहा है। 2025 में, डिसएंगेजमेंट से कुछ राहत मिली, लेकिन पूर्ण वापसी नहीं। विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन कभी नहीं हटेगा, जब तक भारत मजबूत न हो। भारत को सैन्य आधुनिकीकरण और कूटनीति से दबाव बनाना होगा। निष्कर्ष: सतर्कता और संतुलन की आवश्यकता भारत-चीन संबंधों में व्यापार असंतुलन, ऐतिहासिक अविश्वास और सीमा विवाद चुनौतियां हैं। व्यापार से चीन लाभान्वित हो रहा, जबकि भारत घाटे में। दोस्ती संभव, लेकिन विश्वास की कमी बाधा। चीन ने पाकिस्तान का साथ दिया, गलवान में सुधार हुआ लेकिन अपूर्ण, और कब्जा हटाने की उम्मीद कम। भारत को सैन्य शक्ति, आर्थिक स्वावलंबन और अंतरराष्ट्रीय गठबंधनों से मजबूत होना होगा। 2025 में, दोनों देशों को शांति के लिए प्रयास करने चाहिए, लेकिन भारत को सतर्क रहना होगा। केवल संतुलित दृष्टिकोण से ही स्थिरता आएगी।

रविवार, 31 अगस्त 2025

चीन पर बढ़ती निर्भरता और भारतीय अर्थव्यवस्था का भविष्य

समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल ही में यह चिंता जताई कि भारत लगातार चीन के उत्पादों पर अधिक निर्भर होता जा रहा है। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर यही रफ्तार जारी रही, तो इसका असर न केवल भारत के औद्योगिक ढांचे पर पड़ेगा बल्कि देश की व्यापारिक स्थिति भी कमजोर हो जाएगी। अखिलेश यादव का तर्क है कि चीन पहले भारतीय बाज़ारों को सस्ते और बड़े पैमाने पर उपलब्ध अपने उत्पादों से भर देता है, जिससे घरेलू उद्योग धीरे-धीरे कमजोर हो जाते हैं। बाद में जब भारतीय कंपनियां प्रतिस्पर्धा खो बैठती हैं, तब चीन अपनी मर्जी से कीमतें तय कर बाजार पर एक तरह से नियंत्रण कर लेता है। यह चिंता सिर्फ राजनीतिक बयान नहीं है, बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था के सामने खड़े एक गहरे प्रश्न की ओर संकेत करती है। आज के दौर में "आत्मनिर्भर भारत" का नारा दिया जा रहा है, "मेक इन इंडिया" को बढ़ावा दिया जा रहा है और स्थानीय उद्योगों को प्रोत्साहित करने की नीतियां बनाई जा रही हैं। लेकिन जमीन पर सच्चाई कुछ और है। भारत का आयात-निर्यात संतुलन इस बात को साफ दिखाता है कि हम चीन पर भारी मात्रा में निर्भर बने हुए हैं। भारत-चीन व्यापारिक तस्वीर भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों को देखें तो पिछले एक दशक में इसमें लगातार बढ़ोतरी हुई है। भारत चीन से इलेक्ट्रॉनिक सामान, मोबाइल फोन, मशीनरी, खिलौने, कपड़े, औद्योगिक उपकरण और यहां तक कि त्योहारों में इस्तेमाल होने वाली सजावटी वस्तुएं तक आयात करता है। 2024 तक के आंकड़े बताते हैं कि भारत का चीन के साथ व्यापारिक घाटा 100 अरब डॉलर से अधिक हो चुका है। यानी भारत चीन से जितना माल खरीदता है, उसके मुकाबले चीन भारत से बहुत कम माल खरीदता है। यह असंतुलन लंबे समय में भारतीय उद्योग के लिए गंभीर खतरा है। घरेलू उद्योग पर असर चीन की ताकत सस्ते उत्पादन और बड़े पैमाने पर निर्माण क्षमता में है। वहां की कंपनियां कम लागत पर बड़े पैमाने पर उत्पाद तैयार करती हैं। इसका असर भारतीय छोटे और मध्यम उद्योगों (MSME सेक्टर) पर सीधा पड़ता है। इलेक्ट्रॉनिक्स और मोबाइल सेक्टर : भारतीय कंपनियां यहां टिक ही नहीं पातीं। त्योहार और सजावटी सामान : दिवाली की लाइटें, होली के रंग, राखियां और यहां तक कि गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां तक चीन से आकर बाजार में छा जाती हैं। मशीनरी और औद्योगिक उपकरण : छोटे उद्योगों को भी चीनी उपकरणों पर निर्भर होना पड़ता है। इस निर्भरता से स्थानीय उत्पादन क्षमता कमजोर होती है। उद्योगपति और कारीगर धीरे-धीरे बाजार से बाहर होने लगते हैं, जिससे रोजगार पर भी सीधा असर पड़ता है। रणनीतिक खतरे यह मुद्दा सिर्फ आर्थिक नहीं बल्कि रणनीतिक भी है। चीन भारत का पड़ोसी और कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी देश है। सीमा विवाद से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक, दोनों देशों के बीच तनाव की स्थिति कई बार सामने आती रही है। ऐसे में अगर भारत की अर्थव्यवस्था चीन के सामानों पर ज्यादा निर्भर होती चली जाए तो यह भविष्य में दबाव का कारण बन सकता है। अखिलेश यादव की चिंता यहीं पर अधिक प्रासंगिक हो जाती है। अगर चीन किसी दौर में कीमतें बढ़ा दे या किसी खास उत्पाद की सप्लाई रोक दे, तो भारत के उद्योग और बाजार हिल सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के दौरान जब चीन से दवाइयों और मेडिकल उपकरणों की सप्लाई प्रभावित हुई, तब भारत को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। क्या है समाधान? घरेलू उद्योगों को मजबूत करना छोटे और मध्यम उद्योगों को आसान ऋण, तकनीकी सहायता और आधुनिक मशीनों तक पहुंच दिलाना जरूरी है। "मेक इन इंडिया" अभियान को सिर्फ नारेबाजी से आगे बढ़ाकर ज़मीनी स्तर पर लागू करना होगा। टेक्नोलॉजी में आत्मनिर्भरता इलेक्ट्रॉनिक्स, सेमीकंडक्टर और मोबाइल निर्माण जैसे क्षेत्रों में भारत को अपनी क्षमता विकसित करनी होगी। सरकार ने सेमीकंडक्टर निर्माण के लिए योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन उन्हें तेज़ी और पारदर्शिता के साथ लागू करना जरूरी है। स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा त्योहारों और दैनिक उपयोग की वस्तुओं में "स्वदेशी" उत्पादों को प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिए उपभोक्ताओं की सोच भी बदलनी होगी। जब तक लोग सस्ते चीनी सामान को प्राथमिकता देंगे, तब तक स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा देना मुश्किल होगा। निर्यात बढ़ाना भारत को अपने निर्यात के क्षेत्र बढ़ाने होंगे। टेक्सटाइल, फार्मा, आईटी और कृषि उत्पादों में भारत की बड़ी क्षमता है। निर्यात बढ़ाकर ही व्यापार घाटे को संतुलित किया जा सकता है। राजनीति और अर्थशास्त्र का संगम अखिलेश यादव का बयान केवल राजनीतिक विरोध के लिए नहीं माना जाना चाहिए। यह एक गंभीर आर्थिक चेतावनी है। आज भले ही भारतीय बाजार सस्ते चीनी सामान से भरे हों और उपभोक्ता इसे "किफायती विकल्प" मानते हों, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा के खिलाफ है। राजनीतिक दलों को भी यह समझना होगा कि विदेशी सामानों के खिलाफ केवल बयानबाजी या बहिष्कार का नारा पर्याप्त नहीं है। इसके लिए ठोस नीतियां, अनुसंधान में निवेश, नवाचार को प्रोत्साहन और स्थानीय उद्योगों को सुरक्षा कवच देना आवश्यक है। निष्कर्ष भारत का भविष्य इस पर निर्भर करेगा कि वह चीन पर अपनी निर्भरता कैसे घटाता है और किस हद तक अपने उद्योगों को प्रतिस्पर्धी बनाता है। अखिलेश यादव की यह चिंता समयानुकूल है और इसे केवल विपक्ष का बयान कहकर नज़रअंदाज़ करना गलत होगा। अगर भारत वास्तव में आत्मनिर्भर बनना चाहता है, तो उसे घरेलू उत्पादन, तकनीकी विकास और स्थानीय उद्यमिता को प्राथमिकता देनी होगी। अन्यथा चीन का वह मॉडल हावी रहेगा, जिसमें पहले वह बाजार पर कब्जा करता है और बाद में अपनी शर्तों पर सौदे करवाता है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार, उद्योग और उपभोक्ता – तीनों मिलकर स्थानीय उत्पादों और उद्योगों को मजबूत करें। तभी भारत आर्थिक रूप से सुरक्षित और स्वतंत्र बन सकेगा। ✍️लेखक : दुर्गेश यादव!

एससीओ शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग मुलाकात: आतंकवाद और कनेक्टिविटी पर वैश्विक दक्षिण के लिए नए संकेत

✍️ लेखक: दुर्गेश यादव! तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन इस बार विशेष रूप से चर्चा में रहा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच हुई मुलाकात ने न केवल द्विपक्षीय संबंधों पर, बल्कि पूरे यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की राजनीति पर गहरा असर डाला। पूर्व विदेश सचिव शशांक ने इस मुलाकात को लेकर कहा, “एससीओ, वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन तथा हिंद-प्रशांत क्षेत्रों के प्रमुख सदस्यों का दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है, जो महत्वपूर्ण है। हालांकि प्राथमिकताएं होनी चाहिए – पहली, आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी, भविष्य के लिए बुनियादी ढांचे और कनेक्टिविटी का निर्माण करना।”* उनकी यह टिप्पणी न केवल भारत-चीन संबंधों को समझने का आधार देती है, बल्कि आने वाले वर्षों की वैश्विक कूटनीति को भी दिशा दिखाती है। एससीओ की बढ़ती अहमियत शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना 2001 में हुई थी और इसका दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है। भारत और पाकिस्तान 2017 में इसके पूर्ण सदस्य बने। आज एससीओ एशिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय मंचों में गिना जाता है, जहां रूस, चीन, भारत, पाकिस्तान, मध्य एशियाई देश और अब ईरान जैसे देश भी शामिल हैं। इस संगठन की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इसमें एक साथ वैश्विक दक्षिण (Global South), यूरेशियन क्षेत्र और हिंद-प्रशांत क्षेत्र से जुड़े देश शामिल हैं। यही कारण है कि एससीओ केवल एक क्षेत्रीय मंच नहीं, बल्कि एक वैश्विक कूटनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। मोदी-जिनपिंग मुलाकात का महत्व भारत और चीन के बीच संबंध पिछले कुछ वर्षों में तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर सीमा विवाद और गलवान की घटनाओं के बाद। ऐसे में तियानजिन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात को एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है। इस बैठक का सबसे बड़ा संदेश यह है कि दोनों देश अपने मतभेदों के बावजूद संवाद की राह बनाए रखना चाहते हैं। यह मुलाकात ऐसे समय पर हुई है जब दुनिया ऊर्जा संकट, महंगाई, यूक्रेन युद्ध और वैश्विक दक्षिण की चुनौतियों से जूझ रही है। भारत और चीन यदि सहयोग के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं तो यह पूरे एससीओ को नई ऊर्जा दे सकता है। आतंकवाद पर लगाम: साझा प्राथमिकता शशांक ने सही कहा कि एससीओ की पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना होनी चाहिए। 1.क्षेत्रीय स्थिरता के लिए आवश्यक– मध्य एशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां अभी भी बड़ी चुनौती हैं। यदि इन पर नियंत्रण नहीं होता तो व्यापार और कनेक्टिविटी की कोई भी योजना असफल हो जाएगी। 2.भारत की सुरक्षा चिंता – भारत लंबे समय से सीमा पार आतंकवाद का शिकार रहा है। इसलिए एससीओ मंच भारत के लिए आतंकवाद पर वैश्विक सहमति बनाने का एक अवसर है। 3.चीन की चिंता – चीन के लिए भी शिंजियांग क्षेत्र में उग्रवाद और आतंकवाद एक समस्या है। इस लिहाज से भारत और चीन का सहयोग एक साझा मंच पर संभव हो सकता है। कनेक्टिविटी और बुनियादी ढांचा: भविष्य की कुंजी एससीओ का दूसरा बड़ा एजेंडा है कनेक्टिविटी और इंफ्रास्ट्रक्चर। अंतरराष्ट्रीय कॉरिडोर: चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) और भारत की इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (INSTC) इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को जोड़ सकते हैं। ऊर्जा सहयोग: रूस, ईरान और मध्य एशिया ऊर्जा संपन्न क्षेत्र हैं जबकि भारत और चीन बड़े उपभोक्ता हैं। बेहतर कनेक्टिविटी से ऊर्जा व्यापार सुगम होगा। डिजिटल कनेक्टिविटी: भविष्य केवल सड़कों और रेल का नहीं है, बल्कि डिजिटल और तकनीकी सहयोग का भी है। एससीओ इस दिशा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। वैश्विक दक्षिण के लिए संकेत शशांक ने अपनी टिप्पणी में खासतौर पर वैश्विक दक्षिण (Global South) का जिक्र किया। वैश्विक दक्षिण के देश विकासशील अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्हें बुनियादी ढांचे और सुरक्षा दोनों की आवश्यकता है। एससीओ का मंच इन देशों को पश्चिमी देशों से अलग एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है। भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों की उपस्थिति से वैश्विक दक्षिण के छोटे देशों को रणनीतिक संतुलन बनाने में मदद मिल सकती है। यूरेशियन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भूमिका एससीओ के भीतर सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह दो बड़े भू-राजनीतिक क्षेत्रों – यूरेशिया और हिंद-प्रशांत – को जोड़ता है। यूरेशियन क्षेत्र: यहां रूस और मध्य एशियाई देश प्रमुख खिलाड़ी हैं। ऊर्जा, सुरक्षा और भू-राजनीति यहां की प्रमुख चुनौतियां हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र: भारत, चीन और समुद्री व्यापार मार्ग इस क्षेत्र को वैश्विक शक्ति केंद्र बनाते हैं। यदि एससीओ इन दोनों क्षेत्रों को साझा हितों के आधार पर जोड़ता है, तो यह पश्चिमी गठबंधनों का एक सशक्त विकल्प बन सकता है। भारत की भूमिका भारत के लिए एससीओ केवल एक बहुपक्षीय मंच नहीं, बल्कि रणनीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है। यह भारत को मध्य एशिया और रूस से जोड़ता है। भारत को आतंकवाद पर अपनी स्थिति स्पष्ट करने का अवसर देता है। ऊर्जा और कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स में भारत की भूमिका को मजबूत करता है। चीन के साथ प्रतिस्पर्धा के बावजूद सहयोग का एक संतुलित रास्ता दिखाता है। चुनौतियां और संभावनाएं हालांकि संभावनाएं बहुत हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं। 1.भारत-चीन सीमा विवाद – यदि इस पर ठोस प्रगति नहीं होती तो द्विपक्षीय सहयोग सीमित रह जाएगा। 2.पाकिस्तान की भूमिका – पाकिस्तान का रवैया एससीओ की एकता को प्रभावित कर सकता है। 3.पश्चिमी दबाव – अमेरिका और यूरोपीय देशों की नीतियां भी एससीओ देशों के फैसलों पर असर डालती हैं। इसके बावजूद, यदि भारत और चीन संवाद और सहयोग को आगे बढ़ाते हैं तो एससीओ भविष्य में वैश्विक व्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ बन सकता है। निष्कर्ष तियानजिन शिखर सम्मेलन में मोदी-जिनपिंग की मुलाकात केवल एक औपचारिक घटना नहीं थी, बल्कि वैश्विक दक्षिण और यूरेशियन-हिंद प्रशांत क्षेत्र के लिए नए संकेत थी। पूर्व विदेश सचिव शशांक की यह राय कि *“पहली प्राथमिकता आतंकवाद पर लगाम लगाना और दूसरी प्राथमिकता कनेक्टिविटी का निर्माण करना”– वास्तव में आने वाले वर्षों के लिए एससीओ के रोडमैप का आधार हो सकती है। भारत के लिए यह अवसर है कि वह एससीओ के माध्यम से अपनी वैश्विक भूमिका को और मजबूत करे, जबकि चीन के लिए यह मौका है कि वह सहयोग की राह पर चलते हुए विश्वास बहाल करे। यदि दोनों देश यह जिम्मेदारी निभाते हैं, तो एससीओ वास्तव में 21वीं सदी का सबसे प्रभावशाली बहुपक्षीय संगठन बन सकता है।

राजनीति के मोहरे नहीं, बदलाव के वाहक बनें — यूपी-बिहार के युवाओं का भविष्य

“कदम मिलाओ नौजवानो, देश की डगर तुम्हारे पैरों से तय होगी।” भारत की युवा शक्ति दुनिया की सबसे बड़ी है, और उसका केंद्र है — उत्तर प्रदेश और ब...