संदेश

नरेंद्र मोदी का ढलता सूरज और राहुल गांधी का उगता हुआ नेतृत्व

दुर्गेश यादव - देश की राजनीति इस समय संक्रमण काल से गुजर रही है। नरमोदी के नायकत्व का दौर धीरे-धीरे ढलान की ओर है और इसके समानांतर राहुल गांधी एक नए राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर रहे हैं। यह सिर्फ भारतीय परिदृश्य तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक लोकतांत्रिक राजनीति का नया पैटर्न है, जहां बड़े बदलाव किसी विचारधारा से अधिक किसी ‘नायक’ या ‘व्यक्ति’ के इर्द-गिर्द केंद्रित दिखाई दे रहे हैं। पिछले दो दशकों में हमने देखा कि चाहे अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप हों, फ्रांस में मैक्रों, ब्राजील में बोलसोनारो और अब लूला, इटली में मेलोनी, रूस में पुतिन या चीन में शी जिनपिंग—सत्ता और जनाकर्षण का केंद्र व्यक्ति विशेष ही बनता गया है। जनता को नायक चाहिए, जो उनकी समस्याओं का सीधा समाधान करने का दावा करे। भारत में 2014 में यह भूमिका नरेंद्र मोदी ने निभाई। उन्होंने खुद को ऐसा नेता प्रस्तुत किया जिसके पास हर समस्या का समाधान है। गुजरात मॉडल, भ्रष्टाचार मुक्त शासन और विकास के बड़े सपनों ने उन्हें जनता का ‘नायक’ बना दिया। लेकिन समय के साथ वह जादू टूटने लगा। मोदी सरकार ने दो बड़े वादे पूरे किए—राम मंदिर निर्...

किराएदारों की खामोश पीड़ा—एक अदृश्य शोषण

देश की गलियों और चौकों में आए दिन छोटी-छोटी घटनाओं पर धरना-प्रदर्शन, नारेबाज़ी और आंदोलन देखने को मिलते हैं। सरकारें नए-नए वादे करती हैं, विकास के दावे पेश किए जाते हैं। लेकिन इन्हीं नारों और वादों के शोर में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सबसे अधिक पीड़ित है, परंतु खामोश है। शायद उसने मान लिया है कि उसकी आवाज़ कभी संसद के गलियारों तक नहीं पहुँचेगी। यह वर्ग है—किराएदारों का, जिनमें हर मज़दूर, हर प्रवासी, हर छात्र शामिल है, जो घर से दूर काम या पढ़ाई की तलाश में निकलता है। शहरों और कस्बों में किराए पर रहने वाले लोगों की ज़िंदगी आसान नहीं है। एक ओर रोज़गार और पढ़ाई का दबाव, दूसरी ओर मकान मालिकों और पीजी संचालकों का मनमाना रवैया। कमरे छोटे से छोटे होते जा रहे हैं, लेकिन किराया लगातार बढ़ रहा है। किराए की कोई सीमा तय नहीं है—मालिक का मन ही नियम है। नतीजा यह कि मज़दूर अपनी आधी से ज़्यादा कमाई, और छात्र अपनी अधिकांश पारिवारिक मदद सिर्फ किराए में खर्च कर देता है। स्थिति यहाँ तक पहुँच चुकी है कि किराएदार के पास अपनी कमाई का हिसाब तक नहीं बचता। एक रिपोर्ट के अनुसार, महानगरों में रहने वाले एक सामान्य क...

आयोग पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है, तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?

🗳️“अगर जनता का वोट सुरक्षित नहीं, तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?” यह सवाल आज हर भारतीय के दिल में उठ रहा है, और इसकी वजह है कांग्रेस नेता राहुल गांधी का वह बयान, जिसमें उन्होंने चुनाव आयोग पर वोटों की चोरी का सीधा आरोप लगाया है। लोकतंत्र पर चोट? भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ हर वोट की अहमियत है। लेकिन जब चुनाव के बाद यह सुनने को मिले कि वोटों की चोरी हुई, कि ईवीएम से छेड़छाड़ की गई, या कि नतीजों को बदल दिया गया, तो सिर्फ एक नेता नहीं, हर नागरिक का दिल दुखता हैराहुल गांधी ने हाल ही में दावा किया कि उनके पास ऐसे ठोस सबूत हैं जो यह साबित करते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में कई सीटों पर वोटिंग प्रक्रिया में गड़बड़ियां हुईं। क्या हैं राहुल गांधी के आरोप? राहुल गांधी ने कहा: “देश की आत्मा को खत्म किया जा रहा है। हम चुप नहीं बैठेंगे। हमने सबूत इकट्ठा किए हैं — फर्जी वोटिंग, ईवीएम में गड़बड़ी और मतगणना में धांधली। यह लोकतंत्र की हत्या है।” उन्होंने कुछ वीडियो और दस्तावेज सार्वजनिक किए, जिनमें दिखाया गया कि कुछ पोलिंग बूथ्स पर एक ही व्यक्ति कई बार वोट डाल रहा है, और EV...

कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.!

कैमरे संविधान नहीं, जाति चुनते है.! हम एक लोकतंत्र में जी रहे हैं। एक ऐसा लोकतंत्र, जहां हर नागरिक को समान अवसर, समान सम्मान और समान अभिव्यक्ति का अधिकार है। लेकिन क्या वाक़ई ऐसा हो रहा है? कभी-कभी लगता है कि लोकतंत्र के नाम पर सिर्फ़ एक सजावटी फ्रेम टंगा है — जिसमें सत्ता का चेहरा बार-बार बदलता है, लेकिन उसका चरित्र वही रहता है। आज हम एक अजीब दृश्य देख रहे हैं। एक व्यक्ति, जिसका न कोई विधायक है, न सांसद, न कोई जन आंदोलन और न ही जनाधार — फिर भी देश की सबसे बड़ी मीडिया संस्थाएं उसके पीछे भाग रही हैं। वो व्यक्ति है — प्रशांत किशोर पांडे, और उसकी पार्टी — जनसुराज। मीडिया का झुकाव — इत्तेफ़ाक़ नहीं, एजेंडा है जनसुराज पार्टी की जमीनी हकीकत क्या है, यह बिहार का हर गांव जानता है। लेकिन मीडिया की सुर्खियाँ, टीवी की प्राइम टाइम बहसें, अख़बारों के पहले पन्ने — सब इस एक व्यक्ति को इतनी तवज्जो क्यों देते हैं? क्या ये मुफ्त की मोहब्बत है? नहीं। ये उस सत्ता संरचना का हिस्सा है, जिसे ‘इकोसिस्टम’ कहा जाता है। एक ऐसा इकोसिस्टम, जो अपने जातीय और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए किसी को भी नेता बना ...

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं.

📚“शिक्षा की चुप्पी – जब स्कूल खामोश हो जाते हैं..." ✍️ 'By Durgesh Yadav' "जब समाज मंदिर-मस्जिद में उलझा हो, और स्कूलों पर ताले लगे हों, तो कोई क्रांति नहीं आती — सिर्फ अंधेरा फैलता है।" आज हम एक ऐसे दौर में हैं जहाँ देश तकनीक, अंतरिक्ष और वैश्विक नेतृत्व की बातें कर रहा है। लेकिन ज़रा पीछे मुड़िए... गाँव की ओर देखिए... जहाँ स्कूल हैं — पर बच्चे नहीं। जहाँ शिक्षक हैं — पर पढ़ाई नहीं। जहाँ बिल्डिंग है — पर माहौल नहीं। 🔍सवाल यह नहीं कि स्कूल हैं या नहीं, सवाल यह है कि क्या वहाँ ‘शिक्षा’ है? हर चौराहे पर शराब की दुकान सजती है, युवा धर्म के नारों में उलझे हैं, और स्कूल...? वो या तो बंद पड़े हैं, या नाम मात्र के लिए चल रहे हैं। 📉क्या वजह है कि आज गरीब माता-पिता भी महंगे प्राइवेट स्कूलों की ओर भाग रहे हैं? ₹1500–12000 तक की मनमानी फीस, किताबें, ड्रेस, ट्रांसपोर्ट का बोझ, फिर भी वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में नहीं भेजना चाहते। क्यों? क्योंकि उन्हें स्कूल की इमारत नहीं, शिक्षा की गुणवत्ता चाहिए। और यही गुणवत्ता उन्हें सरकारी स्कूल में नहीं मिल रही।...

शिक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल.?

िक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल आज हमारा देश एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। आज़बाद एक सपना देखा गया था – हर घर में शिक्षा का दीपक जले, हर बच्चा स्कूल जाए, और एक सशक्त, शिक्षित भारत का निर्माण हो। लेकिन आज हालात कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। सरकार की तरफ से गांवों के सरकारी स्कूलों को “मर्ज़” (विलय) के नाम पर बंद किया जा रहा है। कारण बताया जाता है कि स्कूलों में 20 से कम बच्चे हैं। सवाल ये उठता है – क्या यही आखिरी उपाय है? क्या कोई दूरदर्शी योजना नहीं बन सकती थी? गांव के बच्चों की शिक्षा पर संकट ये फैसला सीधे-सीधे दूरदराज़ के गांवों में रहने वाले बच्चों की शिक्षा को संकट में डाल देता है। उन बच्चों के लिए जो पहले ही शिक्षा से दूर थे, अब स्कूल ही बंद हो जाने से उनके पास कोई विकल्प नहीं बचता। सरकारी आंकड़ों से परे, जमीनी सच्चाई ये है कि अब लोग अपने बच्चों को भारी फीस देकर प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पसंद कर रहे हैं। क्यों? क्यों छोड़ा जा रहा है सरकारी स्कूल? शिक्षकों की भारी कमी है। जो शिक्षक हैं भी, वे पढ़ाई पर ध्यान नहीं देते। स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं न...

कोई "लालू यादव" ऐसे ही नहीं बन जाता

कोई "लालू यादव" ऐसे ही नहीं बन जाता भारत के राजनीतिक इतिहास में कई नेताओं ने अपनी छवि बनाई, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जो जनता के दिलों में घर कर जाते हैं। लालू प्रसाद यादव ऐसे ही नेता रहे हैं, जिन्होंने अपनी अनोखी कार्यशैली, सामाजिक न्याय की राजनीति और आम जनता से सीधे जुड़ाव के कारण अलग पहचान बनाई। बिहार की राजनीति में उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले लिए, जो पहली बार किसी मुख्यमंत्री द्वारा किए गए थे। आइए, उनके कुछ ऐतिहासिक फैसलों पर एक नजर डालते हैं। 1. युवा सांसद के रूप में ऐतिहासिक प्रवेश (1977) 1977 में, मात्र 29 वर्ष की उम्र में, लालू यादव छपरा से लोकसभा चुनाव जीते और देश के सबसे युवा सांसदों में शामिल हुए। यह ऐतिहासिक इसलिए भी था क्योंकि वे छात्र नेता के रूप में जेल में रहते हुए हथकड़ी पहने नामांकन पत्र भरने आए थे और 3.75 लाख वोटों से भारी जीत दर्ज की। 2. मुख्यमंत्री पद की शपथ आम जनता के बीच (1990) 10 मार्च 1990 को लालू यादव ने एक नई परंपरा शुरू की। आमतौर पर मुख्यमंत्री की शपथ राजभवन में होती थी, लेकिन उन्होंने यह रस्म पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में हजारों लोगों के स...