गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025
हँसी का साहस या कमजोर का उपहास?
{संपादकीय - दुर्गेश यादव ✍️}
कॉमेडी: हँसी का साहस या कमजोर का उपहास?
हँसी वह हथियार है, जो न केवल दुनिया की तल्ख़ सच्चाइयों को बेनक़ाब करता है, बल्कि समाज की जड़ता को चुनौती भी देता है। पर आज भारत में कॉमेडी के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह अधिकतर सतही, डरपोक और शक्तिहीनों को लताड़ने वाला मज़ाक़ भर रह गया है।
क्या नहीं है कॉमेडी?
कॉमेडी वह नहीं है, जो हाशिए पर खड़े लोगों का मज़ाक बनाए। एक महिला की हँसी पर तंज़, किसी दलित की भाषा का उपहास, टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलने वाले का मज़ाक, किसी गरीब की फटी जेब पर व्यंग्य, गाँव से आए किसी इंसान की मासूमियत को हल्के में लेना—यह सब कॉमेडी नहीं है। यह सिर्फ़ भद्दा और घटिया उपहास है, जिसमें हँसी कम, किसी की बेइज़्ज़ती ज़्यादा होती है।
हमने देखा है कि स्टैंड-अप कॉमेडी हो या फ़िल्मों की पटकथाएँ, अक्सर निशाना वहीं साधा जाता है, जहाँ कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं होता। ड्राइवर, वेटर, डिलीवरी बॉय, दिव्यांग लोग, मोटे लोग, साँवले लोग—ये सब आसान शिकार हैं। क्योंकि इन्हें ट्रोल करने पर न तो कोई राजनीतिक जोखिम है, न कोई कानूनी पेच। यही वजह है कि मंच पर खड़े कॉमेडियन हों या सोशल मीडिया के तथाकथित ‘फनी’ कंटेंट क्रिएटर, अधिकतर उन्हीं पर चुटकुले बनाते हैं जो पहले से हाशिए पर खड़े हैं।
कॉमेडी की धार ऊपर उठनी चाहिए-
असली कॉमेडी वह है, जो सत्ता को चुनौती दे। जो शक्तिशाली को कटघरे में खड़ा करे। जिसने दुनिया की सबसे प्रभावशाली कॉमेडी परंपराएँ खड़ी कीं—चार्ली चैपलिन, जॉर्ज कार्लिन, रिचर्ड प्रायर, जॉन ओलिवर—वे सब ज़मीनी सच्चाइयों पर वार करने वाले थे, न कि किसी गरीब की क़मीज़ पर फब्तियाँ कसने वाले।
भारत में भी हंसी का एक साहसी इतिहास रहा है। तेनालीराम और बीरबल के किस्सों में राजा का मज़ाक उड़ाने की हिम्मत थी। हास्य के शिखर पर बैठे शरद जोशी और हरिशंकर परसाई जैसी कलमों ने व्यवस्था की चीरफाड़ की थी। लेकिन आज के कॉमेडियनों का दिल इतना छोटा हो गया है कि वे सत्ता पर वार करने से पहले सौ बार सोचते हैं।
अगर कॉमेडी का साहस है, तो ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगों पर व्यंग्य करो। अरबों का घोटाला करने वालों पर चुटकुले बनाओ। नेताओं की नाकामियों पर व्यंग्य कसो। मीडिया की चापलूसी को उजागर करो। पूँजीपतियों की अंधेरगर्दी पर ठहाके लगाओ। लेकिन यह सब करने में जोखिम है। इसीलिए ज़्यादातर कॉमेडियन वह जोखिम नहीं लेना चाहते।
डरपोक हँसी से इनकार-
आज के दौर में कॉमेडी की असली परीक्षा यही है कि वह कौन से पक्ष में खड़ी है। क्या वह अन्याय को उजागर करने का साहस रखती है, या केवल उन्हें नीचा दिखाने में लगी है जो पहले ही सताए जा चुके हैं?
कॉमेडी हमेशा एक क्रांति रही है, पर भारत में इसे कायरता बना दिया गया है। अगर कोई कॉमेडियन वाकई हिम्मत रखता है, तो उसे अपनी नज़र ऊपर उठानी होगी। नहीं तो वह सिर्फ़ सत्ता के मनोरंजन का एक और साधन बनकर रह जाएगा।
बुधवार, 12 फ़रवरी 2025
इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय!
इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय! {संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️}
लोकतंत्र में जीत और हार सिर्फ़ आंकड़े नहीं होते, यह सपनों का उत्थान और पतन भी होते हैं। **इंडिया गठबंधन** एक सपना था—विपक्ष के बिखरे दलों को एकजुट करने का, देश को एक नई दिशा देने का। लेकिन यह सपना टूटने की कगार पर है।
यह गठबंधन तब बना था जब जनता ने महसूस किया कि सत्ता में बैठी ताकतें अजेय होती जा रही हैं, और विपक्ष को एकजुट होना होगा। लेकिन जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वह कभी दिखी ही नहीं। गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखा गया, लेकिन इसकी आत्मा कभी तैयार ही नहीं हुई।
नेतृत्व का असमंजस: कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी
राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि "विचारधारा की लड़ाई में उन्हें कुछ नुकसान उठाना पड़े तो उठाएंगे।" अब समय है कि वे इसे सच साबित करें। यदि यह लड़ाई विचारधारा की है, तो गठबंधन को एक संगठित दिशा देने के लिए रोजमर्रा के फैसलों की ज़िम्मेदारी अखिलेश यादव जैसे ऊर्जावान और ज़मीनी नेता को सौंपनी चाहिए।
सोनिया गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष रह सकते हैं, लेकिन गठबंधन की धड़कन, उसकी गति और उसकी आत्मा को संचालित करने के लिए अखिलेश से बेहतर कोई नहीं।
टूटी रणनीतियों का गठबंधन
नीतीश कुमार के नेतृत्व में इस गठबंधन की नींव पड़ी थी, लेकिन कांग्रेस की अनिर्णय की राजनीति ने इसे कमज़ोर बना दिया। बैठकें होती रहीं, लेकिन फैसले नहीं लिए गए।
- कोई स्थायी कार्यालय नहीं।
- कोई नियमित समन्वय बैठक नहीं।
- कोई कॉमन एजेंडा नहीं।
- कोई प्रधानमंत्री उम्मीदवार तक नहीं।
यह कैसी तैयारी थी? यह कैसा गठबंधन था?
जब ममता बनर्जी ने खड़गे को प्रधानमंत्री चेहरा बनाने का सुझाव दिया, अरविंद केजरीवाल ने समर्थन किया, और नीतीश कुमार को संयोजक बनाने की बात चली, तो कांग्रेस ने इसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया?
आज हम देखते हैं कि नीतीश कुमार गठबंधन से अलग हो गए, अरविंद केजरीवाल की राजनीति पर वार हुआ, और INDIA गठबंधन बिखरता चला गया।
मोदी को लाइफलाइन देने वाला कौन?
अगर सिर्फ़ 40-50 सीटों का फर्क नहीं होता, तो आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं होते। वह शायद गुजरात में कहीं ध्यान लगा रहे होते, और देश में एक नई सरकार आकार ले रही होती।
लेकिन नहीं! कांग्रेस ने अपनी धीमी और असमंजस भरी राजनीति से विपक्ष को भी असहाय बना दिया।
दिल्ली में केजरीवाल के किले को ढहा दिया गया।
बिहार में नीतीश कुमार दूर हो गए।
बंगाल में ममता बनर्जी अपने रास्ते पर चल रही हैं।
इस गठबंधन का यह हाल क्यों हुआ?
क्योंकि कांग्रेस यह तय ही नहीं कर पाई कि वह खुद क्या चाहती है?
अखिलेश यादव: नया नेतृत्व, नई ऊर्जा
अगर इस गठबंधन को फिर से खड़ा करना है, तो इसे एक ऊर्जावान, ज़मीनी और सर्वस्वीकार्य नेतृत्व चाहिए।
अखिलेश यादव के पक्ष में क्या है?
1. हर विपक्षी नेता से अच्छे संबंध।
2. ओबीसी पहचान, जिससे वह सामाजिक न्याय की राजनीति को धार दे सकते हैं।
3. राजनीतिक लचीलापन, जिससे वह कांग्रेस और अन्य दलों के बीच पुल का काम कर सकते हैं।
4. युवा ऊर्जा, जिससे गठबंधन को गतिशीलता मिल सकती है।
अगर इंडिया गठबंधन की बैठकें अखिलेश यादव के नेतृत्व में होंगी, तो आपसी दूरियां घटेंगी, संवाद बढ़ेगा और कांग्रेस की सामाजिक न्याय की राजनीति को ज़मीन मिलेगी।
आज राहुल गांधी जातिगत जनगणना और सामाजिक भागीदारी की बात कर रहे हैं, लेकिन वह खुद ओबीसी नहीं हैं, और कभी खुद को "जनेऊधारी ब्राह्मण" भी बता चुके हैं। इसलिए यह मुद्दा जनता के बीच वह आग नहीं जला पा रहा, जो अखिलेश जला सकते हैं।
इतिहास से सीखने का समय
1989 में जब वी.पी. सिंह विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत थे, तो संयुक्त मोर्चा ने अध्यक्ष के रूप में चौधरी देवीलाल को चुना। चुनाव के बाद देवीलाल ने प्रधानमंत्री पद छोड़कर वी.पी. सिंह का समर्थन किया।
अगर सोनिया गांधी त्याग कर महान हो सकती हैं, तो 1989 में देवीलाल ने भी वही किया था।
आज कांग्रेस को वही त्याग करना होगा। अगर वह गठबंधन को जीवित रखना चाहती है, तो उसे संयोजक का पद अखिलेश यादव को सौंपना होगा।
एक खिलाड़ी से टीम नहीं बनती
क्रिकेट में कोई भी खिलाड़ी एक साथ बल्लेबाज़ी, गेंदबाज़ी और फील्डिंग नहीं कर सकता।
राजनीति भी एक टीम गेम है। अगर विपक्ष को जीतना है, तो उसे टीम वर्क करना होगा।
अब समय आ गया है कि अखिलेश यादव को आगे लाया जाए।
अगर कांग्रेस ने फिर वही गलती दोहराई, तो 2029 में विपक्ष का अस्तित्व ही दांव पर लग जाएगा। **यह सिर्फ़ इंडिया गठबंधन की लड़ाई नहीं है, यह भारतीय लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई है।
अब फैसला कांग्रेस को करना है—क्या वह अपने अतीत के बोझ से निकलकर एक नए भविष्य की ओर बढ़ेगी? या फिर एक और चुनाव हारने के लिए तैयार रहेगी?
- संपादकीय समाप्त
रविवार, 9 फ़रवरी 2025
शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज!
शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज!
(संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️)
इतिहास केवल विजेताओं की गाथा नहीं होता, बल्कि यह उन असंख्य संघर्षों की कहानी भी है जो दबे-कुचले वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ी। भारत का सामाजिक ताना-बाना सदियों से ऊँच-नीच, भेदभाव और शोषण की परतों में उलझा रहा है। विशेष रूप से दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को शिक्षा, संपत्ति और समानता के अधिकार से वंचित रखा गया।
एक समय था जब इन समुदायों के बच्चों को पढ़ने का हक नहीं था। वे जमींदारों और उच्च वर्गों के घरों में मज़दूरी करने या खेतों में हल चलाने को मजबूर थे। उनकी मेहनत के बदले उन्हें केवल पेट भरने लायक कुछ रोटियाँ नसीब होती थीं। पशुपालन और खेती उनकी जीविका का साधन था, लेकिन इस पर भी शोषणकारी व्यवस्था हावी थी। जमींदार आदेश देते कि उनके घर घी, दूध और दही पहुँचाया जाए, और यदि किसी गरीब ने मना किया, तो उसे दंडित किया जाता था। जंगलों और बंजर ज़मीनों को उन्होंने अपने खून-पसीने से उपजाऊ बनाया, लेकिन अधिकार उन पर नहीं था—टैक्स वसूलने के लिए राजा और जमींदार पहले से मौजूद थे।
ब्रिटिश राज में परिवर्तन की हल्की आहट
ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज में शिक्षा, प्रशासन और कानूनी सुधारों की शुरुआत की, जिससे वंचित वर्गों को नाममात्र की राहत मिली। शिक्षा के क्षेत्र में कुछ दरवाज़े खुले, जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनने लगे, लेकिन यह बदलाव ऊपरी सतह तक सीमित था। सामाजिक कुरीतियाँ अभी भी मजबूत थीं और शोषण की जड़ें गहरी थीं।
आज़ादी के बाद का बदलाव
स्वतंत्रता के बाद भारत में सबसे बड़ा सामाजिक-आर्थिक सुधार भूमि सुधार कानूनों के रूप में आया। जो ज़मीन कभी जमींदारों और राजाओं के कब्जे में थी, उसे उन्हीं किसानों और मज़दूरों के नाम किया गया, जो पीढ़ियों से उस पर मेहनत कर रहे थे। शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव हुआ, दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था बनी, जिससे उन्हें समान अवसरों की शुरुआत मिली।
लेकिन क्या यह संघर्ष समाप्त हो गया?
भूलती जा रही है संघर्ष की गाथा
आज की पीढ़ी इस इतिहास से अनजान होती जा रही है। जिस सामाजिक बदलाव की नींव उनके पूर्वजों ने अपने अधिकारों की लड़ाई से रखी, उसकी कीमत को समझने की जरूरत है। आज अवसर हैं, लेकिन समानता की पूरी लड़ाई अभी भी अधूरी है।
शिक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक समरसता को मजबूत करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह अधिकार किसी की दी हुई भीख नहीं, बल्कि संघर्ष से अर्जित की गई उपलब्धि है। जब तक इस इतिहास की चेतना जीवित रहेगी, तब तक समाज में समानता और न्याय की लौ जलती रहेगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य: भारत के विकास की अनदेखी बुनियाद.!
शिक्षा और स्वास्थ्य: भारत के विकास की अनदेखी बुनियाद.!
जब हम अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया और रूस को देखते हैं, तो हमें वहाँ की चमक-दमक, उनकी टेक्नोलॉजी, उनकी कंपनियों और उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर गर्व होता है। हम SpaceX, Tesla, Apple, Google, Microsoft, Samsung और Sony जैसी कंपनियों की सफलता को सराहते हैं। हम हॉलीवुड की चकाचौंध, लॉस वेगास की रंगीनियाँ और पश्चिमी देशों के आर्थिक साम्राज्य को देखकर दंग रह जाते हैं।
लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि ये देश इतनी ऊँचाई पर पहुँचे कैसे?
क्या वे सीधे रॉकेट बनाने लगे थे? क्या वहाँ पहले ही दिन Tesla की गाड़ियाँ सड़कों पर दौड़ने लगी थीं? क्या Google और Microsoft बिना किसी आधारभूत ढाँचे के खड़े हो गए?
नहीं। इन देशों ने सबसे पहले अपनी जनता को शिक्षित और स्वस्थ बनाया। उन्होंने पहले स्कूल, अस्पताल, सड़कें, बिजली, पानी, स्वच्छता और समान अवसर सुनिश्चित किए। उन्होंने अपने नागरिकों को ऐसा वातावरण दिया, जहाँ वे सोच सकें, नया आविष्कार कर सकें और दुनिया के लिए कुछ क्रांतिकारी कर सकें।
पर भारत में क्या हो रहा है?
हमारे देश में एक गरीब बच्चा, जिसकी आँखों में भी Google, Tesla या Microsoft बनाने का सपना है, वह सुबह उठता है और देखता है कि—
- उसका स्कूल जर्जर हालत में है, पढ़ाने के लिए अच्छे शिक्षक नहीं हैं।
- अस्पताल में डॉक्टर नहीं है, इलाज के लिए दवा उपलब्ध नहीं है।
- बिजली आधी रात को कट जाती है, पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं है।
- टूटी हुई सड़कों और कूड़े से भरे नालों के बीच उसकी जिंदगी गुजरती है।
- नौकरी के लिए लाखों की भीड़ में खड़ा होना पड़ता है, और फिर भी अवसर नहीं मिलता।
ऐसे हालात में कैसे कोई बच्चा वैज्ञानिक बनेगा?
कैसे कोई युवा आविष्कार करेगा?
कैसे कोई नवाचार करेगा?
जब तक मूलभूत सुविधाएँ नहीं, तब तक विकास असंभव
अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और रूस की सबसे बड़ी ताकत उनकी जनता है—शिक्षित, स्वस्थ और जागरूक जनता।
उन्होंने अपनी जनता को मजबूत किया, और उसी जनता ने इन देशों को महाशक्ति बना दिया।
लेकिन भारत में क्या हुआ?
- बजट का एक बड़ा हिस्सा नेताओं के ऐशो-आराम, प्रचार और भ्रष्टाचार में चला जाता है।
- शिक्षा और स्वास्थ्य को सबसे कम प्राथमिकता दी जाती है।
- जो भी प्रतिभा निकलकर आती है, वह या तो विदेश चली जाती है या फिर बेरोजगारी और संसाधनों की कमी के कारण दम तोड़ देती है।
भारत के नेताओं, उद्योगपतियों और ब्यूरोक्रेट्स ने अपने स्वार्थ के लिए देश की सबसे बड़ी शक्ति—जनता को ही कमजोर बना दिया।
अगर हम सच में विकसित होना चाहते हैं
- हमें पहले हर गाँव, हर शहर में समान शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ देनी होंगी।
- हमें पहले सुनिश्चित करना होगा कि कोई बच्चा सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ने को मजबूर न हो, क्योंकि उसके घर में बिजली या किताबें नहीं हैं।
- हमें पहले युवा पीढ़ी को ऐसा माहौल देना होगा जहाँ वे सिर्फ जीवित रहने के लिए संघर्ष न करें, बल्कि नए विचारों पर काम कर सकें।
- हमें पहले भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा, ताकि सरकार के बजट का पैसा सही जगह पर इस्तेमाल हो सके।
एक शिक्षित और स्वस्थ भारत ही सशक्त भारत होगा
अगर हमें Tesla, Microsoft, Google और SpaceX जैसी कंपनियाँ चाहिए, तो हमें पहले स्वस्थ और शिक्षित नागरिक तैयार करने होंगे।
अगर हमें परमाणु वैज्ञानिक चाहिए, तो हमें पहले ऐसे स्कूल और विश्वविद्यालय चाहिए जहाँ वे सही शिक्षा ले सकें।
अगर हमें दुनिया में भारत का नाम रोशन करना है, तो हमें पहले अपनी जनता के लिए मूलभूत सुविधाएँ सुनिश्चित करनी होंगी।
अन्यथा, हम सिर्फ पश्चिमी देशों की तरक्की देखकर आहें भरते रहेंगे, और भारत की असली प्रतिभा गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी के दलदल में फँसती रहेगी।
(संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️)
राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.!
राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.!
भारतीय राजनीति में सफलता एक लंबी यात्रा होती है, जिसमें वर्षों का संघर्ष, समाज के लिए किया गया काम और जनता के बीच बनाई गई विश्वसनीयता शामिल होती है। देश के कई बड़े नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल गए, आंदोलन किए, तब जाकर वे सत्ता के शिखर तक पहुँचे। लेकिन इसके विपरीत, अरविंद केजरीवाल को जिस तरह से राजनीति में ‘पैराशूट’ से उतारा गया और मीडिया द्वारा रातों-रात नेता बना दिया गया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक असाधारण और अप्राकृतिक घटना है।
संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता-
कांग्रेस और आजादी का आंदोलन:
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, लेकिन इसे पहली बड़ी सफलता 1947 में मिली, जब भारत स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल यात्राएँ कीं, लाठियाँ खाईं, और अनगिनत कठिनाइयों का सामना किया। नेहरू 27 साल की उम्र में कांग्रेस में सक्रिय हुए थे और उन्हें प्रधानमंत्री बनने में 52 साल लगे।
कांशीराम और मायावती:
मान्यवर कांशीराम ने दलित राजनीति की नींव रखने के लिए पूरे भारत में संगठन खड़ा किया, जागरूकता अभियान चलाए और दशकों तक संघर्ष किया। मायावती 1984 में बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना के साथ राजनीति में सक्रिय हुईं और 1995 में पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। उन्हें सत्ता तक पहुँचने में 11 साल लगे, लेकिन यह संघर्ष और आंदोलन की राजनीति का नतीजा था।
मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव:
मुलायम सिंह यादव 1950 के दशक से राजनीति में सक्रिय थे, 1967 में पहली बार विधायक बने और 1989 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। उन्हें 22 साल तक जनता के बीच संघर्ष करना पड़ा। लालू प्रसाद यादव ने 1970 के दशक में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से राजनीति शुरू की, 1977 में सांसद बने, और 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्हें भी 20 साल तक संघर्ष करना पड़ा।
ममता बनर्जी:
ममता बनर्जी 1970 के दशक में कांग्रेस की युवा नेता के रूप में राजनीति में आईं। 1998 में तृणमूल कांग्रेस बनाई और 2011 में पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। उन्हें सत्ता तक पहुँचने में 30 साल लगे।
केजरीवाल की 'असाधारण' सफलता: क्या यह संघर्ष था?
अब इसी पैमाने पर अरविंद केजरीवाल को देखें—
- 2011 में अन्ना आंदोलन के सहारे सुर्खियों में आए।
- 2012 में आम आदमी पार्टी बनाई।
- 2013 में मात्र 1 साल बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री बन गए।
इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जहाँ कोई व्यक्ति बिना किसी लंबे संघर्ष के इतने बड़े राजनीतिक पद पर पहुँच गया हो। यह सफलता संघर्ष का परिणाम नहीं थी, बल्कि मीडिया द्वारा गढ़ी गई एक कृत्रिम लहर का नतीजा थी।
मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान का 'विशेष समर्थन'
- अन्ना आंदोलन को मीडिया ने अभूतपूर्व कवरेज दी, जो किसी और जनांदोलन को कभी नहीं मिली।
- केजरीवाल को हमेशा एक ‘क्रांतिकारी’ और ‘ईमानदार’ नेता के रूप में प्रचारित किया गया, जबकि दूसरे नेताओं को भ्रष्ट, जातिवादी और पुरानी राजनीति का प्रतीक बताया गया।
- 2013 में जब उन्होंने दिल्ली में सरकार बनाई, तो मीडिया ने इसे जनता की ऐतिहासिक जीत के रूप में पेश किया, जबकि यह एक **प्री-प्लान्ड मीडिया स्ट्रेटेजी** का हिस्सा था।
जाति और सत्ता का विशेषाधिकार
भारत में राजनीति हमेशा सामाजिक समीकरणों से प्रभावित रही है। जहाँ कांशीराम, मायावती, मुलायम सिंह, लालू यादव जैसे नेताओं को अपनी जातिगत पहचान के कारण मुख्यधारा की राजनीति में आने में दशकों लगे, वहीं केजरीवाल को बेहद सहज तरीके से सत्ता मिल गई।
केजरीवाल के बारे में यह तर्क दिया जाता है कि उन्हें मीडिया और शहरी मध्यम वर्ग का समर्थन इसलिए मिला क्योंकि वे एक सवर्ण पृष्ठभूमि से आते हैं। उनकी जाति और सामाजिक स्थिति ने उन्हें ‘स्वीकार्य’ नेता के रूप में प्रस्तुत करने में बड़ी भूमिका निभाई।
इसके विपरीत, बहुजन और पिछड़े वर्ग के नेताओं को ‘गंभीर राजनीति’ में शामिल होने के लिए कई सालों तक अपनी क्षमता साबित करनी पड़ी।
केजरीवाल का असली चेहरा: संघर्ष नहीं, सुविधाजनक राजनीति
आज जब केजरीवाल दिल्ली और पंजाब में सत्ता में हैं, तो उनके शासन की वास्तविकता सामने आ चुकी है।
- भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाली पार्टी खुद कई घोटालों में फँस चुकी है।
- ‘नई राजनीति’ का दावा करने वाली AAP भी वही जातीय और सांप्रदायिक राजनीति कर रही है, जिसे वह पहले कोसती थी।
- ‘सत्ता से मोह नहीं’ का नारा देने वाले केजरीवाल अब किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहना चाहते हैं।
भविष्य की राजनीति: जनता को समझने की जरूरत
भारतीय राजनीति में संघर्ष और विचारधारा की हमेशा से अहमियत रही है।
अगर किसी को बिना संघर्ष के सत्ता मिलती है, तो जनता को यह समझना होगा कि इसके पीछे कौन-सी ताकतें काम कर रही हैं।
अगर मीडिया किसी को ज़रूरत से ज़्यादा ‘संत’ साबित करने में लगा है, तो जनता को सतर्क हो जाना चाहिए।
-और अगर कोई नेता खुद को व्यवस्था-विरोधी बताकर सत्ता तक पहुँचता है, लेकिन सत्ता में आते ही वही पुरानी राजनीति करने लगता है, तो उसे पहचानना जरूरी है।
केजरीवाल की सफलता संघर्ष से अधिक एक 'प्रोजेक्ट' का हिस्सा थी। यह प्रोजेक्ट कैसे बना, किसने इसे आगे बढ़ाया, और इसका असली मकसद क्या था—यह अब धीरे-धीरे सामने आ रहा है।
निष्कर्ष: संघर्ष का कोई विकल्प नहीं
भारतीय लोकतंत्र में असली नेता वह होता है जो जनता के बीच जाकर वर्षों तक संघर्ष करता है, न कि वह जिसे मीडिया और सत्ता प्रतिष्ठान रातों-रात गढ़ देते हैं।
केजरीवाल का उदाहरण हमें यह सिखाता है कि **कृत्रिम सफलता की उम्र ज्यादा नहीं होती।** बिना संघर्ष के मिली सत्ता सिर्फ एक भ्रम होती है, जो धीरे-धीरे टूट जाती है। जनता को अब यह समझना होगा कि राजनीति में असली बदलाव सिर्फ वही लोग ला सकते हैं, जिनका आधार जनता और संघर्ष हो, न कि मीडिया की चकाचौंध और प्रचार तंत्र।
(संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️)
विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश.!
विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश!
भारत के लोकतंत्र में हर चुनाव जनता की आकांक्षाओं का आईना होता है। यह सिर्फ सीटों का गणित नहीं, बल्कि उस भविष्य की दिशा तय करता है जो करोड़ों लोगों की जिंदगी को प्रभावित करेगा। लेकिन जब सत्ता का खेल सिद्धांतों से बड़ा हो जाए, जब सहयोग की जगह स्वार्थ ले ले, और जब नेतृत्व दूरदृष्टि की बजाय अहंकार से संचालित हो, तो नतीजा वही होता है जो हाल ही के चुनावों में देखने को मिला—विपक्ष की करारी हार।
इन चुनावों में अखिलेश यादव ने विपक्षी एकता की मिसाल पेश करते हुए हरियाणा में कांग्रेस को समर्थन दिया, क्योंकि उन्होंने देखा कि वहाँ भाजपा को हराने का सबसे मजबूत मौका कांग्रेस के पास है। दिल्ली में उन्होंने आम आदमी पार्टी (AAP) का साथ दिया, क्योंकि वहाँ AAP ही भाजपा के खिलाफ सबसे प्रभावी ताकत थी। उन्होंने यह सब बिना किसी निजी स्वार्थ के किया, सिर्फ इसलिए कि सांप्रदायिक ताकतों को रोका जा सके।
लेकिन बदले में क्या मिला?
AAP ने हरियाणा में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा, जिससे कांग्रेस की राह मुश्किल हो गई।
कांग्रेस ने दिल्ली में AAP को कमजोर किया और उसे मात दे दी।
यानि जहाँ अखिलेश यादव विपक्षी एकता का सपना देख रहे थे, वहीं कांग्रेस और AAP अपने-अपने स्वार्थों में उलझे रहे। उन्होंने भाजपा को हराने के बजाय एक-दूसरे को हराने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। और नतीजा? हरियाणा में कांग्रेस भी सत्ता से बाहर रह गई और दिल्ली में AAP का सफाया हो गया।
विपक्ष का आत्मघाती रवैया: कौन किसे हराना चाहता था?
अगर कांग्रेस और AAP ईमानदारी से एक-दूसरे का साथ देते, तो शायद नतीजे कुछ और होते। लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि इन दोनों दलों के लिए असली दुश्मन भाजपा नहीं, बल्कि एक-दूसरे का वजूद था।
विपक्ष को मजबूत करने की बजाय, उन्होंने एक-दूसरे की जड़ें काटने का काम किया। **जिस आग में वे भाजपा को जलाना चाहते थे, उसी आग में खुद जल गए।
इस चुनाव ने यह दिखा दिया कि **सिर्फ गठबंधन बना लेने से कुछ नहीं होता, उसे निभाने के लिए इच्छाशक्ति चाहिए।लेकिन जब पार्टी हित, देश हित से बड़ा हो जाए, जब अहंकार सहयोग से ऊपर आ जाए, तो विपक्षी एकता सिर्फ एक छलावा बनकर रह जाती है।
अखिलेश यादव: त्याग और दूरदृष्टि बनाम अवसरवाद!
इन चुनावों में अखिलेश यादव ने दिखाया कि राजनीति सिर्फ सत्ता का खेल नहीं होती, यह नैतिकता और निष्ठा की भी परीक्षा होती है। उन्होंने न सिर्फ अपनी पार्टी, बल्कि पूरे विपक्ष की मजबूती के लिए कदम उठाए। लेकिन उनकी यह कोशिश कांग्रेस और AAP की आपसी लड़ाई के कारण विफल हो गई।
अब सवाल यह है कि क्या विपक्ष को अब भी यह समझ आएगा कि अगर वे आपस में लड़ते रहेंगे, तो भाजपा को रोकना असंभव हो जाएगा?
जनता को समझना होगा: कौन सच में भाजपा से लड़ रहा था?
जनता को यह देखना होगा कि विपक्ष में कौन सत्ता के लिए लड़ रहा था और कौन सिद्धांतों के लिए।
- क्या कांग्रेस और AAP ने भाजपा को हराने की ईमानदार कोशिश की?
- या वे सिर्फ अपनी-अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने में लगे रहे?
- अगर वे साथ आते, तो क्या भाजपा को रोका नहीं जा सकता था?
यह लड़ाई सिर्फ पार्टियों की नहीं, बल्कि भारत के लोकतंत्र की है। अगर विपक्ष अब भी नहीं समझा, तो वह दिन दूर नहीं जब जनता भी उनकी स्वार्थी राजनीति को नकार देगी। और तब, उनकी हार सिर्फ एक चुनावी पराजय नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक भूल बन जाएगी।
भविष्य का सवाल: क्या विपक्ष अपनी गलतियों से सीखेगा?
अगर विपक्ष सच में भाजपा को रोकना चाहता है, तो उसे अखिलेश यादव जैसी दूरदृष्टि और समर्पण से सीखना होगा। उसे आपसी लड़ाई छोड़नी होगी, नहीं तो जनता भी एक दिन उन्हें छोड़ देगी।
राजनीति में हार-जीत तो होती रहती है, लेकिन जो दल अपने स्वार्थ की आग में जनता की उम्मीदों को जलाने लगते हैं, वे कभी खड़े नहीं हो पाते। विपक्ष को यह सबक जितनी जल्दी समझ में आ जाए, उतना ही देश के लिए अच्छा होगा।
(संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️)
शनिवार, 8 फ़रवरी 2025
लोकतंत्र की हत्या पर कैसा जश्न?
लोकतंत्र की हत्या पर कैसा जश्न?
जब लोकतंत्र की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे, जब मतदाता की आवाज़ दबा दी जाए, जब चुनाव केवल एक दिखावा बनकर रह जाएँ, तब यह केवल एक दल की जीत नहीं, बल्कि संपूर्ण लोकतंत्र की हार होती है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का यह आरोप कि भाजपा वोटों से नहीं, बल्कि चुनावी तंत्र के दुरुपयोग से सत्ता में बनी हुई है, केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक गहरी सच्चाई है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
क्या अब जनता का मत कोई मायने नहीं रखता?
हर लोकतंत्र का मूल स्तंभ है—जनता का अधिकार, निष्पक्ष चुनाव, और प्रशासन की निष्पक्षता। लेकिन जब सत्ता की भूख इतनी बढ़ जाए कि लोकतंत्र केवल सत्ता हथियाने का माध्यम बन जाए, तब यह केवल एक सरकार का सवाल नहीं रह जाता, बल्कि पूरे देश के भविष्य का सवाल बन जाता है।
अगर जनता का वोट पहले से ही बेमानी कर दिया जाए, अगर चुनावी प्रक्रिया महज़ एक औपचारिकता बन जाए, अगर जीत पहले से तय हो, तो फिर यह लोकतंत्र कहाँ रह गया? अखिलेश यादव का यह कहना कि “403 विधानसभाओं में यह चार सौ बीसी नहीं चलेगी” इस गहरी चिंता की ओर इशारा करता है कि कहीं हम लोकतंत्र के मूल्यों को धीरे-धीरे खत्म करने की ओर तो नहीं बढ़ रहे?
प्रशासन की भूमिका: जब न्याय बिकने लगे,
जो अधिकारी निष्पक्षता की शपथ लेते हैं, जो संविधान की रक्षा करने के लिए नियुक्त किए जाते हैं, अगर वही सत्ता के इशारे पर नाचने लगें, तो यह जनता के साथ सबसे बड़ा धोखा है। क्या वे भूल गए कि न तो सत्ता स्थायी है और न ही उनकी ताकत? आज जो अधिकारी चुनावी धांधलियों में शामिल होकर सत्ता की कठपुतली बने हुए हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि कल जब सत्ता बदलेगी, तो वे अकेले पड़ जाएंगे।
इतिहास गवाह है कि जब-जब किसी सरकार ने तानाशाही रवैया अपनाया, जब-जब प्रशासन ने सत्ता के दबाव में अन्याय किया, तब-तब जनता ने उन्हें सबक सिखाया। आज जिन अधिकारियों ने सत्ता के इशारे पर लोकतंत्र का सौदा किया, कल वे ही अपने बच्चों और परिवार के सामने शर्मिंदगी की ज़िंदगी जीने को मजबूर होंगे।
क्या यह जीत सच में जीत है?
अगर भाजपा को अपनी जीत पर इतना भरोसा होता, तो उन्हें चुनावी तंत्र के दुरुपयोग की ज़रूरत क्यों पड़ती? अगर वे जनता का समर्थन खो चुके हैं, तो क्या सत्ता में बने रहने का कोई नैतिक अधिकार उनके पास बचता है?
जो चुनाव निष्पक्ष नहीं, जो जीत जबरन हथियाई गई हो, जो परिणाम पहले से तय हों—वह जीत नहीं होती, वह लोकतंत्र की हत्या होती है। और जो लोग इस हत्या में शामिल हैं, वे चाहे जितना भी जश्न मना लें, इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।
भविष्य किसका?
लोकसभा चुनावों में अयोध्या में हुई पीडीए की सच्ची जीत इस विधानसभा की "झूठी जीत" पर हमेशा भारी पड़ेगी। यह सत्ता का नशा, यह प्रशासन की मिलीभगत, यह चुनावी घपलेबाजी सब क्षणिक है।
पर जनता का विश्वास अमर है।
जो लोग आज सत्ता के मद में चूर होकर लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं, वे भूल गए हैं कि समय सबसे बड़ा न्यायाधीश होता है।
आज जो सत्ता में हैं, कल वे गुमनामी में खो जाएंगे।
आज जो ताकतवर हैं, कल वे सबसे कमजोर साबित होंगे।
आज जो जनता की आवाज़ दबा रहे हैं, कल वही जनता उन्हें नकार देगी।
क्योंकि जनता की आवाज़ ही लोकतंत्र की असली ताकत है।
और यह आवाज़ कभी नहीं मरेगी।
(दुर्गेश यादव ✍️)
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
अमेरिका और कोलंबिया की मिसाल: क्या भारत को भी यह सीखने की जरूरत नहीं है?
अमेरिका और कोलंबिया की मिसाल: क्या भारत को भी यह सीखने की जरूरत नहीं है?
अमेरिका ने हाल ही में अपने अवैध प्रवासियों को उनके देशों में वापस भेजने के लिए जो तरीका अपनाया, वह एक कड़ा संदेश है। उसने उन्हें अपने C-17 सैन्य मालवाहक जहाजों के द्वारा हथकड़ी और बेड़ियों में बांधकर भेजा, जिससे यह जताया गया कि जो अवैध तरीके से उसके देश में घुसेगा, वह यही सजा पाएगा। यह दृष्टिकोण न केवल कठोर है, बल्कि इंसानियत की सीमाओं को भी लांघता हुआ प्रतीत होता है।
यहां पर एक और उदाहरण सामने आता है, जब अमेरिका ने कोलंबिया के अवैध प्रवासियों को भी इस तरह वापस भेजने का प्रयास किया। लेकिन कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो ने इस तरीके का विरोध किया और अमेरिकी विमान को अपने देश में उतरने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। कोलंबिया ने मानवीय दृष्टिकोण अपनाया, और दो पैसेंजर विमानों के द्वारा अपने नागरिकों को इज्ज़त के साथ वापस बुलाया। जब वे अपने देश की राजधानी "बोगोटा" पहुंचे, तो राष्ट्रपति पेट्रो खुद विमान के अंदर गए और उन्होंने अपने नागरिकों से कहा, “अब आप आज़ाद हैं, और अपनी मातृभूमि पर हैं। आप निराश ना हों, सरकार आपके लिए हर संभव मदद उपलब्ध कराएगी।” यह संदेश न केवल सहानुभूति से भरा था, बल्कि देशप्रेम और मानवाधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता भी दर्शाता था।
अब सोचिए, भारत जैसे विशाल और समृद्ध देश में हम इस तरह की मानवीय संवेदना क्यों नहीं दिखा पाते हैं? भारत की अर्थव्यवस्था आज दुनिया में तीसरे नंबर पर है, हम परमाणु शक्ति संपन्न हैं, और हमारे पास 140 करोड़ की आबादी है, फिर भी जब हमारे नागरिक विदेशों में अवैध रूप से फंसे होते हैं, तो हम उन्हें वापस लाने में किसी प्रकार की महत्त्वपूर्ण पहल क्यों नहीं करते? यह सवाल खुद से पूछने की जरूरत है।
हमारे देश का प्रधानमंत्री दुनिया में सबसे लोकप्रिय है, हम सबसे बड़ी लोकतंत्रिक शक्ति हैं, लेकिन क्या हम अपनी मानवता को पहले रख सकते हैं? क्या हम यह नहीं कर सकते कि अगर हमारे नागरिक किसी संकट में हैं तो हम उन्हें इस तरह के अपमानजनक तरीके से नहीं भेजें, बल्कि उनके सम्मान और इज्ज़त के साथ उनके देश वापस लाने के लिए कोई प्रभावी कदम उठाएं?
अगर कोलंबिया जैसे छोटे देश को यह करना आ गया, तो भारत क्यों नहीं कर सकता? यह समय है जब हमें अपनी नीति में बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि हमारी दुनिया में न केवल एक मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में पहचान हो, बल्कि एक मानवीय और सम्मानजनक राष्ट्र के रूप में भी।
(दुर्गेश यादव ✍️)
संपादकीय: बेड़ियों में जकड़े सपने – प्रवासी मजदूरों का अपमान और मोदी की चुप्पी!
संपादकीय: बेड़ियों में जकड़े सपने – प्रवासी मजदूरों का अपमान और मोदी की चुप्पी.!
वह वीडियो जिसने हर भारतीय का सिर झुका दिया—हमारे अपने प्रवासी मजदूर, जो कभी अपनी मेहनत से अमेरिका की इमारतें खड़ी कर रहे थे, आज उन्हीं हाथों को बेड़ियों में जकड़कर भेजा जा रहा है। चेहरों पर लाचारी, आंखों में बेबसी, और पैरों में जंजीरें—यह सिर्फ कुछ लोगों का अपमान नहीं, बल्कि पूरे भारत की गरिमा पर चोट है।
अमेरिकी राजनीति या भारतीयों का अपमान?
डोनाल्ड ट्रंप, जो फिर से अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की दौड़ में हैं, हमेशा से प्रवासियों को बोझ मानते रहे हैं। उनका राजनीतिक खेल साफ है—अपने कट्टर समर्थकों को दिखाना कि वे "गैर-अमेरिकियों" से अमेरिका को मुक्त कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय मजदूरों को अपराधियों की तरह जंजीरों में बांधकर भेजना सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया थी, या जानबूझकर किया गया एक अपमान? क्या यह भारत की अंतरराष्ट्रीय साख को कमजोर करने की कोशिश थी?
मोदी की चुप्पी – कूटनीति या बेबसी?
सबसे दुखद पहलू यह है कि इस शर्मनाक घटना पर भारत सरकार, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह खामोश हैं। वही प्रधानमंत्री, जिन्होंने ट्रंप के स्वागत में "नमस्ते ट्रंप" जैसा भव्य आयोजन किया था, आज अपने ही नागरिकों की बेड़ियों पर कुछ नहीं बोल रहे। क्या यह चुप्पी कूटनीतिक मजबूरी है, या फिर सरकार को यह लगता है कि कुछ गरीब प्रवासी मजदूरों का अपमान कोई बड़ा मुद्दा नहीं?
क्या प्रवासी भारतीय सिर्फ ‘डॉलर भेजने’ के लिए हैं?
यह सवाल हमें खुद से पूछना होगा। जब प्रवासी भारतीय अपनी मेहनत से अरबों डॉलर की कमाई कर भारत भेजते हैं, तब उन्हें "भारत का सच्चा दूत" कहा जाता है। लेकिन जब उन पर संकट आता है, तब हम उन्हें बेसहारा छोड़ देते हैं। यह कैसी नीति है जो प्रवासियों की कमाई को तो सराहती है, लेकिन उनके सम्मान की रक्षा नहीं कर सकती?
सरकार को क्या करना चाहिए?
अमेरिका से कड़ा विरोध जताया जाए – भारत को अमेरिका से आधिकारिक रूप से जवाब मांगना चाहिए कि भारतीय मजदूरों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार क्यों किया गया।
प्रवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित हो – सरकार को यह नीति बनानी होगी कि भविष्य में किसी भी भारतीय को विदेशों में अपमान का सामना न करना पड़े।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर आवाज उठानी होगी – भारत को वैश्विक स्तर पर प्रवासियों के अधिकारों के लिए एक मजबूत पक्ष रखना होगा।
अपने नागरिकों को प्राथमिकता देनी होगी – भारत को यह दिखाना होगा कि वह अपने नागरिकों के सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी देश के सामने खड़ा हो सकता है।
निष्कर्ष: क्या भारत अब भी ‘विश्वगुरु’ है?
यह घटना हमें याद दिलाती है कि सिर्फ मजबूत अर्थव्यवस्था या बड़ी जनसंख्या होने से कोई देश महान नहीं बनता। महान वह होता है जो अपने नागरिकों के सम्मान के लिए खड़ा हो सके। अगर आज भारत अपनी चुप्पी नहीं तोड़ेगा, तो यह चुप्पी सिर्फ मजदूरों का ही नहीं, पूरे देश का अपमान बन जाएगी। क्या हम इस अपमान को सह लेंगे, या फिर अपने प्रवासियों के हक के लिए आवाज उठाएंगे? जवाब हमें ही देना होगा।
(दुर्गेश यादव ✍️)
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)
राजनीति के मोहरे नहीं, बदलाव के वाहक बनें — यूपी-बिहार के युवाओं का भविष्य
“कदम मिलाओ नौजवानो, देश की डगर तुम्हारे पैरों से तय होगी।” भारत की युवा शक्ति दुनिया की सबसे बड़ी है, और उसका केंद्र है — उत्तर प्रदेश और ब...
-
इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय! {संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️} लोकतंत्र में जीत और हार सिर्फ़ आंकड़े नहीं होते, यह सपनों का उत्थान ...
-
िक्षा का दीपक क्यों बुझ रहा है?" – एक सोचने योग्य सवाल आज हमारा देश एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। आज़बाद एक सपना देखा गया था – हर घर मे...
-
✍️ लेखक: दुर्गेश यादव आज जब भी बिहार की राजनीति और उसकी प्रगति या दुर्गति पर चर्चा होती है, तो कुछ लोग आँकड़े उठाकर 1990 के बाद का समय गिन...