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हँसी का साहस या कमजोर का उपहास?

{संपादकीय - दुर्गेश यादव ✍️} कॉमेडी: हँसी का साहस या कमजोर का उपहास? हँसी वह हथियार है, जो न केवल दुनिया की तल्ख़ सच्चाइयों को बेनक़ाब करता है, बल्कि समाज की जड़ता को चुनौती भी देता है। पर आज भारत में कॉमेडी के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है, वह अधिकतर सतही, डरपोक और शक्तिहीनों को लताड़ने वाला मज़ाक़ भर रह गया है। क्या नहीं है कॉमेडी? कॉमेडी वह नहीं है, जो हाशिए पर खड़े लोगों का मज़ाक बनाए। एक महिला की हँसी पर तंज़, किसी दलित की भाषा का उपहास, टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोलने वाले का मज़ाक, किसी गरीब की फटी जेब पर व्यंग्य, गाँव से आए किसी इंसान की मासूमियत को हल्के में लेना—यह सब कॉमेडी नहीं है। यह सिर्फ़ भद्दा और घटिया उपहास है, जिसमें हँसी कम, किसी की बेइज़्ज़ती ज़्यादा होती है। हमने देखा है कि स्टैंड-अप कॉमेडी हो या फ़िल्मों की पटकथाएँ, अक्सर निशाना वहीं साधा जाता है, जहाँ कोई जवाब देने की स्थिति में नहीं होता। ड्राइवर, वेटर, डिलीवरी बॉय, दिव्यांग लोग, मोटे लोग, साँवले लोग—ये सब आसान शिकार हैं। क्योंकि इन्हें ट्रोल करने पर न तो कोई राजनीतिक जोखिम है, न कोई कानूनी पेच। यही वजह है कि...

इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय!

इंडिया गठबंधन: टूटते सपनों को बचाने का समय! {संपादकीय दुर्गेश यादव ✍️} लोकतंत्र में जीत और हार सिर्फ़ आंकड़े नहीं होते, यह सपनों का उत्थान और पतन भी होते हैं। **इंडिया गठबंधन** एक सपना था—विपक्ष के बिखरे दलों को एकजुट करने का, देश को एक नई दिशा देने का। लेकिन यह सपना टूटने की कगार पर है। यह गठबंधन तब बना था जब जनता ने महसूस किया कि सत्ता में बैठी ताकतें अजेय होती जा रही हैं, और विपक्ष को एकजुट होना होगा। लेकिन जो एकजुटता दिखनी चाहिए थी, वह कभी दिखी ही नहीं। गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रखा गया, लेकिन इसकी आत्मा कभी तैयार ही नहीं हुई। नेतृत्व का असमंजस: कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी राहुल गांधी कई बार कह चुके हैं कि "विचारधारा की लड़ाई में उन्हें कुछ नुकसान उठाना पड़े तो उठाएंगे।" अब समय है कि वे इसे सच साबित करें। यदि यह लड़ाई विचारधारा की है, तो गठबंधन को एक संगठित दिशा देने के लिए रोजमर्रा के फैसलों की ज़िम्मेदारी अखिलेश यादव जैसे ऊर्जावान और ज़मीनी नेता को सौंपनी चाहिए। सोनिया गांधी या मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष रह सकते हैं, लेकिन गठबंधन की धड़कन, उसकी गति और उसकी आत्म...

शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज!

शोषण से अधिकार तक: भूले हुए संघर्ष की गूंज! (संपादकीय लेख - दुर्गेश यादव ✍️) इतिहास केवल विजेताओं की गाथा नहीं होता, बल्कि यह उन असंख्य संघर्षों की कहानी भी है जो दबे-कुचले वर्गों ने अपने अधिकारों के लिए लड़ी। भारत का सामाजिक ताना-बाना सदियों से ऊँच-नीच, भेदभाव और शोषण की परतों में उलझा रहा है। विशेष रूप से दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को शिक्षा, संपत्ति और समानता के अधिकार से वंचित रखा गया। एक समय था जब इन समुदायों के बच्चों को पढ़ने का हक नहीं था। वे जमींदारों और उच्च वर्गों के घरों में मज़दूरी करने या खेतों में हल चलाने को मजबूर थे। उनकी मेहनत के बदले उन्हें केवल पेट भरने लायक कुछ रोटियाँ नसीब होती थीं। पशुपालन और खेती उनकी जीविका का साधन था, लेकिन इस पर भी शोषणकारी व्यवस्था हावी थी। जमींदार आदेश देते कि उनके घर घी, दूध और दही पहुँचाया जाए, और यदि किसी गरीब ने मना किया, तो उसे दंडित किया जाता था। जंगलों और बंजर ज़मीनों को उन्होंने अपने खून-पसीने से उपजाऊ बनाया, लेकिन अधिकार उन पर नहीं था—टैक्स वसूलने के लिए राजा और जमींदार पहले से मौजूद थे। ब्रिटिश राज में परिवर्तन की हल्की आ...

शिक्षा और स्वास्थ्य: भारत के विकास की अनदेखी बुनियाद.!

शिक्षा और स्वास्थ्य: भारत के विकास की अनदेखी बुनियाद.! जब हम अमेरिका, यूरोप, जापान, चीन, दक्षिण कोरिया और रूस को देखते हैं, तो हमें वहाँ की चमक-दमक, उनकी टेक्नोलॉजी, उनकी कंपनियों और उनकी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर गर्व होता है। हम SpaceX, Tesla, Apple, Google, Microsoft, Samsung और Sony जैसी कंपनियों की सफलता को सराहते हैं। हम हॉलीवुड की चकाचौंध, लॉस वेगास की रंगीनियाँ और पश्चिमी देशों के आर्थिक साम्राज्य को देखकर दंग रह जाते हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि ये देश इतनी ऊँचाई पर पहुँचे कैसे? क्या वे सीधे रॉकेट बनाने लगे थे? क्या वहाँ पहले ही दिन Tesla की गाड़ियाँ सड़कों पर दौड़ने लगी थीं? क्या Google और Microsoft बिना किसी आधारभूत ढाँचे के खड़े हो गए? नहीं। इन देशों ने सबसे पहले अपनी जनता को शिक्षित और स्वस्थ बनाया। उन्होंने पहले स्कूल, अस्पताल, सड़कें, बिजली, पानी, स्वच्छता और समान अवसर सुनिश्चित किए। उन्होंने अपने नागरिकों को ऐसा वातावरण दिया, जहाँ वे सोच सकें, नया आविष्कार कर सकें और दुनिया के लिए कुछ क्रांतिकारी कर सकें। पर भारत में क्या हो रहा है? हमारे देश में एक गरीब ब...

राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.!

राजनीति में संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता: केजरीवाल को मिले विशेषाधिकार पर एक विश्लेषण.! भारतीय राजनीति में सफलता एक लंबी यात्रा होती है, जिसमें वर्षों का संघर्ष, समाज के लिए किया गया काम और जनता के बीच बनाई गई विश्वसनीयता शामिल होती है। देश के कई बड़े नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल गए, आंदोलन किए, तब जाकर वे सत्ता के शिखर तक पहुँचे। लेकिन इसके विपरीत, अरविंद केजरीवाल को जिस तरह से राजनीति में ‘पैराशूट’ से उतारा गया और मीडिया द्वारा रातों-रात नेता बना दिया गया, वह भारतीय राजनीति के इतिहास में एक असाधारण और अप्राकृतिक घटना है। संघर्ष बनाम प्रायोजित सफलता- कांग्रेस और आजादी का आंदोलन: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई थी, लेकिन इसे पहली बड़ी सफलता 1947 में मिली, जब भारत स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने दशकों तक संघर्ष किया, जेल यात्राएँ कीं, लाठियाँ खाईं, और अनगिनत कठिनाइयों का सामना किया। नेहरू 27 साल की उम्र में कांग्रेस में सक्रिय हुए थे और उन्हें प्रधानमंत्री बनने में 52 साल लगे। कांशीराम और मायावती: म...

विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश.!

विपक्ष की हार: स्वार्थ की आग में जलता जनादेश! भारत के लोकतंत्र में हर चुनाव जनता की आकांक्षाओं का आईना होता है। यह सिर्फ सीटों का गणित नहीं, बल्कि उस भविष्य की दिशा तय करता है जो करोड़ों लोगों की जिंदगी को प्रभावित करेगा। लेकिन जब सत्ता का खेल सिद्धांतों से बड़ा हो जाए, जब सहयोग की जगह स्वार्थ ले ले, और जब नेतृत्व दूरदृष्टि की बजाय अहंकार से संचालित हो, तो नतीजा वही होता है जो हाल ही के चुनावों में देखने को मिला—विपक्ष की करारी हार। इन चुनावों में अखिलेश यादव ने विपक्षी एकता की मिसाल पेश करते हुए हरियाणा में कांग्रेस को समर्थन दिया, क्योंकि उन्होंने देखा कि वहाँ भाजपा को हराने का सबसे मजबूत मौका कांग्रेस के पास है। दिल्ली में उन्होंने आम आदमी पार्टी (AAP) का साथ दिया, क्योंकि वहाँ AAP ही भाजपा के खिलाफ सबसे प्रभावी ताकत थी। उन्होंने यह सब बिना किसी निजी स्वार्थ के किया, सिर्फ इसलिए कि सांप्रदायिक ताकतों को रोका जा सके। लेकिन बदले में क्या मिला? AAP ने हरियाणा में कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा, जिससे कांग्रेस की राह मुश्किल हो गई। कांग्रेस ने दिल्ली में AAP को कमजोर किया और उसे...

लोकतंत्र की हत्या पर कैसा जश्न?

लोकतंत्र की हत्या पर कैसा जश्न? जब लोकतंत्र की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे, जब मतदाता की आवाज़ दबा दी जाए, जब चुनाव केवल एक दिखावा बनकर रह जाएँ, तब यह केवल एक दल की जीत नहीं, बल्कि संपूर्ण लोकतंत्र की हार होती है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव का यह आरोप कि भाजपा वोटों से नहीं, बल्कि चुनावी तंत्र के दुरुपयोग से सत्ता में बनी हुई है, केवल एक राजनीतिक टिप्पणी नहीं, बल्कि एक गहरी सच्चाई है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। क्या अब जनता का मत कोई मायने नहीं रखता? हर लोकतंत्र का मूल स्तंभ है—जनता का अधिकार, निष्पक्ष चुनाव, और प्रशासन की निष्पक्षता। लेकिन जब सत्ता की भूख इतनी बढ़ जाए कि लोकतंत्र केवल सत्ता हथियाने का माध्यम बन जाए, तब यह केवल एक सरकार का सवाल नहीं रह जाता, बल्कि पूरे देश के भविष्य का सवाल बन जाता है। अगर जनता का वोट पहले से ही बेमानी कर दिया जाए, अगर चुनावी प्रक्रिया महज़ एक औपचारिकता बन जाए, अगर जीत पहले से तय हो, तो फिर यह लोकतंत्र कहाँ रह गया? अखिलेश यादव का यह कहना कि “403 विधानसभाओं में यह चार सौ बीसी नहीं चलेगी” इस गहरी चिंता की ओर इशारा क...

अमेरिका और कोलंबिया की मिसाल: क्या भारत को भी यह सीखने की जरूरत नहीं है?

अमेरिका और कोलंबिया की मिसाल: क्या भारत को भी यह सीखने की जरूरत नहीं है? अमेरिका ने हाल ही में अपने अवैध प्रवासियों को उनके देशों में वापस भेजने के लिए जो तरीका अपनाया, वह एक कड़ा संदेश है। उसने उन्हें अपने C-17 सैन्य मालवाहक जहाजों के द्वारा हथकड़ी और बेड़ियों में बांधकर भेजा, जिससे यह जताया गया कि जो अवैध तरीके से उसके देश में घुसेगा, वह यही सजा पाएगा। यह दृष्टिकोण न केवल कठोर है, बल्कि इंसानियत की सीमाओं को भी लांघता हुआ प्रतीत होता है। यहां पर एक और उदाहरण सामने आता है, जब अमेरिका ने कोलंबिया के अवैध प्रवासियों को भी इस तरह वापस भेजने का प्रयास किया। लेकिन कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो ने इस तरीके का विरोध किया और अमेरिकी विमान को अपने देश में उतरने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। कोलंबिया ने मानवीय दृष्टिकोण अपनाया, और दो पैसेंजर विमानों के द्वारा अपने नागरिकों को इज्ज़त के साथ वापस बुलाया। जब वे अपने देश की राजधानी "बोगोटा" पहुंचे, तो राष्ट्रपति पेट्रो खुद विमान के अंदर गए और उन्होंने अपने नागरिकों से कहा, “अब आप आज़ाद हैं, और अपनी मातृभूमि पर हैं। आप निराश ...

संपादकीय: बेड़ियों में जकड़े सपने – प्रवासी मजदूरों का अपमान और मोदी की चुप्पी!

संपादकीय: बेड़ियों में जकड़े सपने – प्रवासी मजदूरों का अपमान और मोदी की चुप्पी.! वह वीडियो जिसने हर भारतीय का सिर झुका दिया—हमारे अपने प्रवासी मजदूर, जो कभी अपनी मेहनत से अमेरिका की इमारतें खड़ी कर रहे थे, आज उन्हीं हाथों को बेड़ियों में जकड़कर भेजा जा रहा है। चेहरों पर लाचारी, आंखों में बेबसी, और पैरों में जंजीरें—यह सिर्फ कुछ लोगों का अपमान नहीं, बल्कि पूरे भारत की गरिमा पर चोट है। अमेरिकी राजनीति या भारतीयों का अपमान? डोनाल्ड ट्रंप, जो फिर से अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की दौड़ में हैं, हमेशा से प्रवासियों को बोझ मानते रहे हैं। उनका राजनीतिक खेल साफ है—अपने कट्टर समर्थकों को दिखाना कि वे "गैर-अमेरिकियों" से अमेरिका को मुक्त कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारतीय मजदूरों को अपराधियों की तरह जंजीरों में बांधकर भेजना सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया थी, या जानबूझकर किया गया एक अपमान? क्या यह भारत की अंतरराष्ट्रीय साख को कमजोर करने की कोशिश थी? मोदी की चुप्पी – कूटनीति या बेबसी? सबसे दुखद पहलू यह है कि इस शर्मनाक घटना पर भारत सरकार, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री नरेंद्...